पिस्ता की खेती ड्राई फ्रूट्स के रूप में की जाती है | ईरान को पिस्ता का जन्मदाता कहा जाता है | इसका पौधा अन्य पौधों की भांति ही सामान्य रूप से विकास करता है, जो एक बार तैयार हो जाने के बाद कई वर्षो तक पैदावार दे देता है, जिसमे निकलने वाला पिस्ता फल खाने में कई तरह से इस्तेमाल में लाया जाता है, तथा इसके दानो से तेल भी प्राप्त किया जाता है | पिस्ता के तेल का उपयोग सौन्दर्य प्रसाधन, विभिन्न व्यंजन तथा दवाई में किया जाता है| पिस्ते का हरा छिलका गाय, भेड़ तथा मुर्गियों को खिलाने के उपयोग में लिया जाता है | पिस्ता का सेवन करने से डाइबिटीज, पिस्ता शुगर और हार्ट अटैक जैसी बीमारियों को नियंत्रित किया जा सकता है | इसके सेवन से त्वचा का सूखापन दूर होता है| पिस्ता एंटी ऑक्सीडेंट से भरपूर तथा डाइबिटीज को रोकता है| भारत में, पिस्ता हिमाचल प्रदेश के चंबल जिले की ऊंची पहाड़ियों और घाटियों में और जम्मू और कश्मीर में लेह और कारगिल के शुष्क समशीतोष्ण क्षेत्रों में उगाया जाता है। @ जलवायु पिस्ता के लिए शुष्क एवं अर्ध्द शुष्क क्षेत्र, शुष्क ग्रीष्मकालीन, कम नमी एवं ठंडी सर्दियों वाले क्षेत्र उत्तम रहते है| पिस्ता का पौधा अधिक गर्म जलवायु वाला होता है, इसकी खेती में उष्ण और समशीतोष्ण जलवायु को सबसे उचित माना जाता है | गर्म जलवायु के अलावा इसका पौधा सर्दियों के मौसम में भी अच्छे से विकास करता है |किन्तु सर्दियों के मौसम में गिरने वाला पाला पौधों को हानि पहुँचाता है | इसके पौधे सूखे को आसानी से सहन कर सकते है, इसलिए कम बारिश में भी पौधे सामान्य रूप से विकास करते है | पिस्ता का पेड़ -10 डिग्री तापक्रम से 48 डिग्री तापक्रम को सहन कर सकता है |ग्रीष्म ऋतु में 48 डिग्री तक का तापक्रम सहन कर सकता है | ग्रीष्म ऋतु में 38 डिग्री तापक्रम पर पिसते के पेड़ पर अच्छे आकार के नट्स का उत्पादन होता है| आरम्भ में इसके पौधों को सामान्य तापमान की आवश्यकता होती है | इसके अलावा जब पौधा 5 से 6 वर्ष का हो जाता है, तब इसके पौधों को अधिकतम 40 डिग्री तथा न्यूनतम 7 डिग्री तापमान की आवश्यकता होती है | @ मिट्टी पिस्ता के पेड़ विभिन्न प्रकार की मिट्टी में उग सकते हैं लेकिन वे विशेष रूप से गहरी, रेतीली, दोमट और अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी में पनपते हैं। पिस्ता की खेती के लिए खास तरह की भूमि की जरूरत होती है, इसकी खेती के लिए हल्की क्षारीय भूमि की आवश्यकता होती है | 7 से 8 के मध्य P.H. मान वाली भूमि को इसकी खेती के लिए उपयुक्त माना जाता है | इस पेड़ की जड़ें जमीन के अंदर गहराई तक पहुंचने के लिए बढ़ती हैं, इसलिए भारी मिट्टी जो बहुत सारा पानी बरकरार रखती है, इन पौधों के लिए आदर्श नहीं है। @ खेत की तैयारी पिस्ता की फसल उगाने से पहले उसके खेत को अच्छी तरह से तैयार कर लिया जाता है | इसके लिए आरम्भ में खेत की मिट्टी पलटने वाले हलो से गहरी जुताई की जाती है| जुताई के बाद खेत को कुछ समय के लिए ऐसे ही खुला छोड़ दिया जाता है | इसके बाद खेत में पानी लगाकर पलेव कर दिया जाता है, पलेव के बाद जब खेत की मिट्टी ऊपर से सूखी दिखाई देने लगती है, उस दौरान रोटावेटर लगाकर खेत की दो से तीन तिरछी जुताई कर दी जाती है | मिट्टी के भुरभुरा होने के पश्चात पाटा लगाकर खेत को समतल कर दिया जाता है | खेत को समतल करने के बाद पौध रोपाई के लिए गड्डो को तैयार कर लिया जाता है, यह गड्डे 5 से 6 मीटर की दूरी रखते हुए एक मीटर चौड़े और दो फ़ीट गहरे तैयार किये जाते है | इन गड्डो को पंक्तियो में तैयार कर ले, तथा प्रत्येक पंक्ति के मध्य 5 से 6 मीटर की दूरी रखे | @ प्रसार नर्सरी में ग्राफ्टिंग या कलम विधि या बडिंग द्वारा तैयार किये गए पौधे से प्रसार किया जाता है | पिस्ता के पेड़ को लगाने के लिए अनुकूल पिस्ता रुटस्टॉक के जरिए पौधारोपन किया जाता है। इस रुट स्टॉक या पौधे को नर्सरी में भी उगाया जा सकता है। नवोदित का कार्य पतझड़ में किया जाता है और अंकुरित पेड़ को उसी साल या अगले साल लगा दिया जाता है। @ बुवाई *बुवाई का समय बारिश का मौसम पौधों की रोपाई के लिए उपयुक्त माना जाता है | पिस्ता के पौधों की रोपाई जून और जुलाई के माह में की जाती है, इसके अलावा पौधों की रोपाई फ़रवरी और मार्च के माह में भी की जा सकती है | *रिक्ति अगर सिंचिंत बाग है तो ग्रिड पैटर्न के लिए 6 मीटर गुणा 6 मीटर की दूरी रखी जानी चाहिए। वैसे इलाके जहां सिंचाई की सुविधा उपलब्ध नहीं है वहां पौधों के बीच दूरी 8मीटर गुणा 10 मीटर होनी चाहिए। पिस्ता (नट) के लिए नर और मादा पेड़ को लगाना चाहिए और इसका अनुपात1:8 (एक नर और आठ मादा पेड़) से 1:10 (एक नर और 10 मादा पेड़) में लगाना चाहिए। *बुवाई विधि पौध लगाने से पूर्व तैयार किये गए गड्डो में एक छोटा सा गड्डा बना लिया जाता है, इन गड्डो को गोमूत्र या बाविस्टिन की उचित मात्रा से उपचारित कर लिया जाता है | उपचारित गड्डो में पौधों को पॉलीथिन से हटाकर रोपाई कर दी जाती है | रोपाई के बाद पौध को चारो तरफ से मिट्टी से अच्छे से ढक दिया जाता है | @ उर्वरक पौधे की आयु के अनुसार उर्वरक खाद एवं उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए। प्रथम वर्ष में गोबर की खाद 50 किग्रा/पौधा, 70 ग्राम नाइट्रोजन, 1.13 किग्रा फ़ॉस्फोरस, 1.80 किग्रा पोटाश दिया जाना चाहिए। द्वितीय वर्ष में गोबर की खाद 50 किग्रा/पौधा, 150 ग्राम नाइट्रोजन, 1.13 किग्रा फ़ॉस्फोरस, 1.80 किग्रा पोटाश दिया जाना चाहिए। तृतीय वर्ष में गोबर की खाद 50 किग्रा/पौधा, 300 ग्राम नाइट्रोजन, 1.13 किग्रा फ़ॉस्फोरस, 1.80 किग्रा पोटाश दिया जाना चाहिए। चतुर्थ वर्ष में गोबर की खाद 50 किग्रा/पौधा, 460 ग्राम नाइट्रोजन, 1.13 किग्रा फ़ॉस्फोरस, 1.80 किग्रा पोटाश दिया जाना चाहिए। पंचम वर्ष में गोबर की खाद 50 किग्रा/पौधा, 610 ग्राम नाइट्रोजन, 1.13 किग्रा फ़ॉस्फोरस, 1.80 किग्रा पोटाश दिया जाना चाहिए। छः वर्ष में गोबर की खाद 50 किग्रा/पौधा, 610 ग्राम नाइट्रोजन, 1.13 किग्रा फ़ॉस्फोरस, 1.80 किग्रा पोटाश दिया जाना चाहिए। सप्त वर्ष व आगे में गोबर की खाद 50 किग्रा/पौधा, 915 ग्राम नाइट्रोजन, 1.13 किग्रा फ़ॉस्फोरस, 1.80 किग्रा पोटाश दिया जाना चाहिए। @ सिंचाई पिस्ता के पौधों को अधिक सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है, किन्तु आरंभ में पौध विकास के लिए अधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है | गर्मियों के मौसम में इसके पौधों की सिंचाई सप्ताह में दो बार की जाती है, जबकि सर्दियों के मौसम में 15 से 20 दिन के अंतराल में पौधों को पानी दे | बारिश के मौसम में जरूरत पड़ने पर ही पौधों की सिंचाई करे | पिस्ता का पौधा जब पूरी तरह से तैयार हो जाये, तब इसके पेड़ को वर्ष में 5 से 6 बार पानी देना होता है | पिस्ता का पौधा लगाने के पहले वर्ष में 20 लीटर, दूसरे वर्ष में 32 लीटर, तीसरे वर्ष में 46 लीटर, चौथे वर्ष में 63 लीटर, पांचवे वर्ष में 89 लीटर, छठे वर्ष में 110 लीटर तथा सातवें वर्ष एवं आगे के वर्षों में 130 लीटर पानी प्रति पौधा देने की आवश्यकता होती है | @ खरपतवार नियंत्रण पिस्ता के पौधों में खरपतवार पर नियंत्रण पाने के लिए प्राकृतिक विधि द्वारा निराई – गुड़ाई विधि का ही इस्तेमाल किया जाता है, रासायनिक विधि द्वारा खरपतवार हटाने से पौधों को हानि होती है | इसके पौधों की पहली गुड़ाई पौध रोपाई के तक़रीबन 25 से 30 दिन बाद की जाती है, तथा बाद की गुड़ाई को दो से तीन महीने के अंतराल में करना होता है | इसके पूर्ण विकसित पौधे को वर्ष में दो से तीन गुड़ाई की आवश्यकता होती है | @ कटाई-छंटाई फूलों और फलों के विकास को प्रोत्साहित करने और विकास को नियंत्रित करने के लिए पिस्ता के पेड़ की नियमित रूप से छंटाई करना अनिवार्य है। छंटाई पिस्ता के पेड़ के केंद्र को खोलने और शाखाओं को भीड़भाड़, क्रॉसिंग और रगड़ से बचाने में मदद करती है। पिस्ता को नवम्बर के मध्य से फरवरी मध्य तक सूखी रोगग्रस्त टहनियां तथा पेड़ को आकार देने के लिए कटाई-छंटाई करनी होती है। @ फसल सुरक्षा *कीट पिस्ता के खेती करने के दौरान कुछ कीट जैसे धुन, स्टिंगबग और लीफ फुटेड प्लांट बग जैसे सामान्य कीट पतंगे पाए जाते है। *रोग पिस्ता की फसल में पायी जाने वाली कुछ बीमारियाँ जैसे क्राउन गाल, पिस्ता डायबैक, सेप्टोरिया लीफ स्पॉट, पेनिकल एंड शुट ब्लाईट, पिस्ता साइलिड आदि है। @ कटाई पिस्ता का पेड़ बादाम या नट के उत्पादन के लिए काफी लंबा समय लेता है। इसके अंकुरित पेड़ अगले पांच साल तक फल देने के लिए तैयार हो जाते हैं और पौधारोपन के 12 साल के बाद से पर्याप्त फल देना शुरू कर देते हैं। जब इसके फलो से छिलका उतरता हुआ दिखाई दे, उस दौरान फलो की तुड़ाई कर लेनी चाहिए | @ उपज पौधारोपन के 10 से 12 साल बाद 10 से 13 किलोग्राम प्रति पौधा पिस्ता नट्स प्राप्त होते है।
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Turmeric Farming - हल्दी की खेती.....!
हल्दी "भारतीय केसर" के नाम से भी जाना जाता है, यह भारत का पवित्र मसाला है। यह भारतीय पाक कला में प्रमुख घटक है और स्वाद और रंग भरने वाले एजेंट के रूप में उपयोग किया जाता है। कैंसर रोधी और वायरल रोधी गुण के कारण इसका उपयोग दवा और कॉस्मेटिक उद्योग में किया जाता है। धार्मिक और औपचारिक अवसरों पर हल्दी का विशेष स्थान है। भारत में, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक और केरल हल्दी के प्रमुख उत्पादक हैं। @ जलवायु हल्दी को विकास के लिए गर्म, नम जलवायु की आवश्यकता होती है। यह समुद्र तल से 1500 मीटर की ऊंचाई पर पर उगाया जाता है। आदर्श तापमान 20-30 ⁰C के बीच होता है और भारत में हल्दी की खेती के लिए प्रति वर्ष 1500 से 2250 मिमी वर्षा की आवश्यकता होती है। इसे सिंचित फसल के रूप में भी उगाया जा सकता है। @ मिट्टी अच्छी जलनिकासी वाली दोमट मिट्टी में उगाने पर, बलुई या चिकनी दोमट या लाल दोमट मिट्टी जिसमें समृद्ध ह्यूमस सामग्री होती है उसका उपयोग हल्दी की खेती के लिए किया जाता है। खेत में पानी के ठहराव से बचें क्योंकि यह जल भराव की स्थिति में जीवित नहीं रह सकता है। @ खेत की तैयारी जमीन की दो-तीन बार जुताई कर खेत तैयार कर लें। जुताई के बाद पाटा चलायें। हल्दी की खेती के लिए 15 सैं.मी. ऊंचाई, 1 मी. चौड़ाई और सुविधाजनक लंबाई की क्यारियां तैयार की जाती हैं। बेड के बीच 50 सेंटीमीटर की दूरी रखें। @ प्रसार हल्दी का प्रसार प्रकंद कटिंग के माध्यम से किया जाता है, जो सर्दि की देर मौसम के दौरान लगाए जाते हैं। @ बीज *बीज दर बुवाई के लिए, ताजा और रोग मुक्त प्रकन्दों (मूल प्रकन्दों के साथ-साथ अंगुलियों) का चयन करें। एक एकड़ भूमि की बुवाई के लिए 6-8 क्विंटल बीज पर्याप्त होता है। * बीज उपचार बिजाई से पहले राइजोम को क्विनालफॉस 25 ई सी 20 मि.ली. + कार्बेनडाज़िम 10 ग्राम को 10 लीटर पानी में मिलाकर उपचार करें और घोल तैयार करें। फिर राइजोम को घोल में 20 मिनट के लिए डुबोकर रखें। यह राइजोम को फंगल इन्फेक्शन से बचाता है। @ बुवाई *बुवाई का समय अधिक उपज प्राप्त करने के लिए प्रकंद की बिजाई अप्रैल के अंत तक खेत में पूरी कर लें। इसे रोपाई विधि से भी उगाया जाता है, इसके लिए जून के पहले पखवाड़े के भीतर प्रकंद की रोपाई पूरी कर लेनी चाहिए। रोपाई के लिए 35-45 दिन पुराने पौधे का प्रयोग करें। * रिक्ति प्रकन्दों को पंक्ति में बोयें और पंक्ति के बीच 30 सेंटीमीटर और दो पौधों के बीच 20 सेंटीमीटर की दूरी रखें। राइजोम रोपण के बाद, पुआल की गीली घास 2.5 टन/एकड़ की दर से खेत में डालें। *बुवाई की गहराई मिट्टी की गहराई 3 सेमी से अधिक नहीं होनी चाहिए। *बुवाई की विधि रोपण के लिए सीधी बुवाई और रोपाई विधि का उपयोग किया जाता है। @ उर्वरक खेत की तैयारी के समय अच्छी तरह से गला हुआ गाय का गोबर 150 क्विंटल प्रति एकड़ मिट्टी में डालें। N:P:K @ 10:10:10 किग्रा/एकड़ यूरिया 25 किग्रा/एकड़, एसएसपी 60 किग्रा/एकड़ और एमओपी 16 किग्रा/एकड़ के रूप में डालें। पोटाश और फास्फोरस की पूरी मात्रा प्रकंद रोपण के समय दी जाती है। नाइट्रोजन की मात्रा दो बराबर भागों में दी जाती है। N की पहली आधी मात्रा बुवाई के 75 दिन बाद और शेष आधी मात्रा रोपण के तीन महीने बाद दी जाती है। @ सिंचाई इसे वर्षा आधारित फसल के रूप में उगाया जाता है इसलिए वर्षा की तीव्रता और वर्षा की आवृत्ति के आधार पर सिंचाई प्रदान करें। भारी मिट्टी के लिए 15-20 सिंचाई चक्र और हल्की मिट्टी के लिए 35-40 सिंचाई चक्रों की आवश्यकता होती है। @ मल्चिंग बिजाई के बाद हरी पत्तियों को फसल के साथ 40-60 क्विंटल प्रति एकड़ में मिला दें। हर खाद डालने के बाद 30 क्विंटल प्रति एकड़ की दर से मल्चिंग दोहराएं। 50 दिनों के अंतराल पर 12-15 टन / हैक्टर गन्ना कचरा या हरी पत्तियों के साथ दो बार मल्चिंग की जाती है। @ फसल सुरक्षा * कीट 1. प्रकंद मक्खी यदि खेत में राइजोम मक्खी का प्रकोप दिखे तो इसकी रोकथाम के लिए एसीफेट 75एसपी 600 ग्राम को 100 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। 15 दिन के अंतराल पर दोबारा छिड़काव करें। 2. चूसने वाला कीट चूषक कीटों को नियंत्रित करने के लिए नीम आधारित कीटनाशक जैसे एज़ाडिरेक्टिन 0.3EC @ 2 मिली/लीटर पानी की स्प्रे करें। 3. तना छेदक कीट यदि तना छेदक कीट का हमला दिखे तो डाइमेथोएट 250 मि.ली. को 150 लीटर या क्विनालफॉस 250 मि.ली. को प्रति 150 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। फसल संरक्षण * रोग 1. झुलसा और पत्ती के धब्बे यदि झुलसा रोग का हमला दिखे तो मैंकोजेब 30 ग्राम या कार्बेनडाज़िम 30 ग्राम को 10 लीटर पानी में मिलाकर 15-20 के अंतराल पर स्प्रे करें या प्रोपीकोनाजोल 2 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। 2. जड़ या प्रकंद सड़न फसल को जड़ सड़न से बचाने के लिए फसल को बोने के 30, 60 और 90 दिनों के बाद मैंकोजेब 3 ग्राम प्रति लीटर में डालें। 3. बैक्टीरियल विल्ट फसल को बैक्टिरिया मुरझाने से बचाने के लिए पौधों को कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर खेत में रोग दिखने के तुरंत बाद डालें। 4. पत्ती मुहासा यदि इसका हमला दिखे तो मैंकोजेब 20 ग्राम या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 25 ग्राम को 10 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। @ कटाई किस्म के आधार पर, इसकी कटाई में 6-9 महीने लगते हैं। हल्दी की कटाई का सही समय तब होता है जब हल्दी की पत्तियां पीली होकर पूरी तरह से सूख जाती हैं, प्रकन्दों को खोदकर निकाल दें और कटाई के बाद प्रकंदों को साफ कर लें। @ उपज औसतन एक एकड़ में 8-10 टन हल्दी की पैदावार होती है।
Apple Ber Farming - सेब बेर की खेती ......!
बहुत ही सीमित रखरखाव और काम के साथ भारत में सबसे अधिक लाभदायक फ़सलों में भारतीय बेर है, जिसे आमतौर पर सेब बेर कहा जाता है। व्यावसायिक रूप से उगाए जाने वाले सेब बेर का आकार एक छोटे सेब के बराबर होता है। एपल इस बेर में खास बात ये है कि इससे बेर और सेब दोनों का मिलाझुला स्वाद आता है। स्वाद कुरकुरा और थोड़े तीखेपन के साथ मीठा होता है। व्यावसायिक रूप से, भारत में सेब बेर की दो किस्मों की खेती की जाती है। एक कश्मीरी सेब बेर हैं, जिसमें फल लाल रंग का होता है, और हरा सेब बेर जो पकने पर हल्के पीले रंग के साथ पूरी तरह से हरा होता है। दोनों फलों की भारतीय बाजार में खूब सराहना होती है। हरा सेब बेर अधिक आम है क्योंकि यह 2010 में जारी किया गया था। कश्मीरी सेब बेर 2019 में जारी किया गया था और यह बाजार के लिए अपेक्षाकृत नया है। सेब बेर से जैम, जेली, बीयर बनाये जाते है, सुखाकर उपयोग में लिया जाता है और उसका औषधीय उपयोग भी है। @ जलवायु कम मानसून के साथ गर्म शुष्क मौसम में सेब बेर सबसे अच्छा बढ़ता है। यह गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु के कुछ हिस्सों, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक जैसे क्षेत्रों के लिए सबसे उपयुक्त है। सर्दियों और मध्यम वर्षा के साथ मौसम गर्म और शुष्क होना चाहिए। पौधा ठंढ को सहन नहीं करता है, हालांकि यह ठंड के मौसम में जीवित रहेगा और निष्क्रियता में चला जाएगा। अत्यधिक बारिश से जड़ सड़न और फफूंद जनित रोग हो सकते हैं। हालांकि पौधा 3 डिग्री सेल्सियस से 45 डिग्री सेल्सियस तक तापमान को सहन कर सकता है, यह उन क्षेत्रों के लिए सबसे अच्छा है जो ठंडे से अधिक गर्म हैं। @ मिट्टी सेब बेर के इतनी तेजी से लोकप्रिय होने का मुख्य कारण मिट्टी की स्थिति और मौसम के प्रति इसकी सहनशीलता है। सेब बेर को लगभग किसी भी प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है। बलुई दोमट, काली कपासी मिट्टी या चिकनी मिट्टी सभी उपयुक्त होती है। सेब बेर के लिए पानी के ठहराव से बचें, हालांकि यह बाढ़ की स्थिति को थोड़ा सहन कर सकता है। नमकीन मिट्टी की सिफारिश नहीं की जाती है। @ प्रसार सेब बेर का प्रसार देसी बेर पौधों की कटाई या बीजों से होता है और फिर उच्च गुणवत्ता वाले सेब की कलियों के साथ ग्राफ्ट किया जाता है। मूल पौधे की कटिंग कम से कम एक पेंसिल की मोटाई की होनी चाहिए और कलियों के विकसित होने तक नर्सरी में उगाई जानी चाहिए। @ बुवाई * बुवाई का समय सेब बेर के पौधे लगाने का सबसे अच्छा मौसम प्री-मानसून है। * रिक्ति सेब बेर को 10 फीट X10 फीट की दूरी पर लगाया जाता है। एक एकड़ भूमि में लगभग 400 पौधों को लगाया जा सकता है। @ उर्वरक सेब बेर के लिए किसी उर्वरक की आवश्यकता नहीं होती है। पौधों की वृद्धि और पौधे के फलने के लिए वर्ष में एक बार प्री-मानसून में एफवाईएम या कम्पोस्ट का प्रयोग पर्याप्त होना चाहिए। कुछ किसानों द्वारा एनपीके का प्रयोग किया जाता है और परिणाम अच्छे होते हैं लेकिन अधिक फल लगने की समस्या होती है जिससे तना टूट जाता है। @ सिंचाई सेब बेर को न्यूनतम सिंचाई की आवश्यकता होती है। मानसून के दौरान, जमीन से सारा पानी निकालना और जलभराव को रोकना महत्वपूर्ण है। गर्मी के दिनों में कम सिंचाई करनी होती है और गर्मी के दिनों में सप्ताह में दो बार 15 मिनट की सिंचाई ड्रिप सिंचाई से पर्याप्त होती है। @ ट्रेनिंग और छंटाई छंटाई साल में एक बार और आमतौर पर मानसून से एक महीने पहले की जाती है। ज्यादातर राज्यों में यह अप्रैल या मई में किया जाता है जब जून में मानसून शुरू होता है। जमीन के ऊपर पौधे के केवल 1 फुट के साथ पौधों की कठोर छंटाई की जाती है। सेब बेर के पौधे केवल नए अंकुरों पर ही फल देते हैं। यह महत्वपूर्ण है कि पौधे से अधिक से अधिक नई टहनियां निकली जाएं और इस प्रकार कड़ी छंटाई सबसे प्रभावी है।ट्रेनिंग जमीन पर गिरने वाली शाखाओं पर कि जाता है। जब और जहां संभव हो पौधे को जमीन पर गिरने से बचाने के लिए बांस के डंडों या डंडियों से सहारा दिया जाता है। पौधे के अत्यधिक बढ़ने और नियंत्रण के बिना, व्यावसायिक खेती में पौधों की ट्रेनिंग करना संभव नहीं है। @ फसल सुरक्षा *कीट सेब बेर में ज्यादातर पाए जाने वाले कीट फल मक्खी, फल छेदक, पत्ती खाने वाले कैटरपिलर, मिलीबग, स्केल कीड़े और थ्रिप्स हैं। कीटनाशकों के प्रयोग के अलावा स्वस्थ रोपण सामग्री का चयन और उपयुक्त अंतर-कल्चरल ऑपरेशन्स कीट को नियंत्रित करने में प्रभावी हैं। *रोग सेब बेर में मुख्य रोग पाउडरी मिल्ड्यू, लीफ स्पॉट, रस्ट और ब्लैक स्पॉट बताया गया है। संक्रमण के प्रकार के आधार पर कवच रोवारल या मैंकोज़ोल @ 2 ग्राम/लीटर या वेटेबल सल्फर आदि का प्रयोग ज्यादातर मामलों में प्रभावी होता है। @ कटाई सेब बेर फूल आने के 150-175 दिन बाद पक जाता है। दक्षिणी भारत में सेब की कटाई का समय अक्टूबर-नवंबर, गुजरात में दिसंबर-मार्च, राजस्थान में जनवरी-मार्च और उत्तर भारत में फरवरी-अप्रैल के दौरान होता है। @ उपज पहले साल से सेब बेर फलों का उत्पादन शुरू हो जाता है। प्रथम वर्ष में एक पौधा औसतन 10 किलो प्रति पौधा से 20 किलो तक उपज देने में सक्षम होता है। दूसरे वर्ष से प्रति पौधा उपज लगभग 100 किलो प्रति पौधा है। प्रति एकड़ 400 पौधों के साथ, प्रति एकड़ प्रति वर्ष 40 टन सेब बेर की उपज हो सकती है।
Asafoetida Farming- हींग की खेती.....!
हींग एक बहुवर्षीय पौधा है तथा पांच वर्ष के उपरांत इसकी जड़ों से ओलिओ गम रेजिन निकलता है जिसे शुद्ध हींग कहते है। इसे शैतान का गोबर, असंत, देवताओं का भोजन, जोवानी बदियान, बदबूदार गोंद, हींग, हेंगू, इंगु, कायम और टिंग के नाम से भी जाना जाता है। कश्मीरी में इसे यांग और सैप, तमिल में (पेरुंगायम) और उर्दू, पंजाबी, हिंदी में हिंग कहा जाता है। राल जैसा गोंद तने और जड़ों से निकाले गए सूखे रस से आता है और मसाले के रूप में उपयोग किया जाता है। ताज़ा होने पर राल भूरे-सफ़ेद रंग की होती है, लेकिन सूखकर गहरे एम्बर रंग में बदल जाती है। आज, सबसे आम तौर पर उपलब्ध रूप मिश्रित हींग है, एक महीन पाउडर जिसमें चावल के आटे और गोंद अरबी के स्टार्च के साथ 30 प्रतिशत हींग राल होता है। @ जलवायु हिंग रेगिस्तान में सबसे अच्छा विकसित हो सकता है। रेगिस्तानी क्षेत्र की जलवायु परिस्थितियाँ खेती के लिए उपयुक्त हैं। हिंग की खेती 20-30 सेलिसियस तापमान में अगस्त के महीने में की जाती है। @ मिट्टी हींग की खेती के लिए रेत, दोमट या चिकनी मिट्टी का मिश्रण आदर्श है। हिंग अम्लीय, तटस्थ और बैज़िक मिट्टी के प्रकार जैसे सभी प्रकार के PH स्तरों में विकसित हो सकता है। मिट्टी को अच्छी तरह से सूखा होना चाहिए। @ प्रसार पौधे को बीज के माध्यम से प्रचारित किया जाता है। @ नर्सरी प्रबंधन बीजों को शुरू में ग्रीनहाउस में बोया जाता है और अंकुरण अवस्था में खेत में स्थानांतरित कर दिया जाता है। इस फसल को आत्म उपजाऊ माना जाता है और कीट द्वारा परागण के माध्यम से भी प्रचारित किया जाता है। @ बुवाई * बुवाई का समय बीज को शुरुआती वसंत के मौसम में सीधे मिट्टी में प्रत्यारोपित किया जाता है। जब बीज ठंडी और नम जलवायु परिस्थितियों के संपर्क आता है, तो अंकुरण की प्रक्रिया शुरू होती है। * रिक्ति प्रत्येक बीज के बीच 2 फीट की दूरी के साथ मिट्टी में प्रत्यारोपित किया जाता है। हिंग की प्रत्येक फसल के बीच 5 फीट। @ सिचाई अंकुरण की प्रक्रिया के दौरान ही हींग की फसल सिंचाई की आवश्यकता होती है। नमी के लिए उंगलियों से मिट्टी का परीक्षण करने के बाद फसल को पानी दिया जाता है। यदि मिट्टी में नमी न हो तो सिंचाई की जाती है। पानी का जमाव फसल को नुकसान पहुंचा सकता है। @ कटाई चूंकि फसल पांच साल के समय में पेड़ की ओर बढ़ती है और पौधों की जड़ों और प्रकंदों से लेटेक्स गम सामग्री प्राप्त होती है। पौधों की जड़ों को जड़ों के बहुत करीब से पौधों को काटकर सतह के संपर्क में लाया जाता है। जो तब कटे हुए स्थान से दूधिया रस का स्राव करता है। यह पदार्थ हवा के संपर्क में आने पर कठोर हो जाता है और निकाला जाता है। जड़ का एक और टुकड़ा अधिक गोंद राल निकालने के लिए काटा जाता है।
Pea farming - मटर की खेती.....!
मटर एक लोकप्रिय सब्जी है जो अपने मीठे स्वाद, जीवंत हरे रंग और पोषण मूल्य के लिए जानी जाती है। हरी फलियों का उपयोग सब्जी के रूप में तथा सूखे मटर का उपयोग दाल के रूप में किया जाता है। मटर विटामिन, खनिज और आहार फाइबर से भरपूर होते हैं, जो उन्हें विभिन्न व्यंजनों के लिए एक स्वस्थ अतिरिक्त बनाते हैं। मटर विटामिन और खनिज जैसे मैग्नीशियम, थायमिन, फॉस्फोरस आदि का एक स्रोत है। यह प्रोटीन, अमीनो एसिड और शर्करा का समृद्ध स्रोत है। हरी मटर का भूसा पशुओं के लिए पौष्टिक चारे का अच्छा स्रोत है। मटर न केवल विभिन्न व्यंजनों में लोकप्रिय है, बल्कि मिट्टी में नाइट्रोजन स्थिर करने की अपनी क्षमता के कारण टिकाऊ कृषि में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भारत में इसकी खेती हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक और बिहार में की जाती है। @ जलवायु मटर ठंडी जलवायु में उगते हैं, जो उन्हें वसंत और पतझड़ दोनों खेती के लिए उपयुक्त बनाता है। मटर नम और ठंडे क्षेत्रों में सबसे अच्छी होती है। तापमान 15 डिग्री से 30 डिग्री सेल्सियस के बीच होना चाहिए।इष्टतम वर्षा सीमा 400 से 500 मिमी के बीच है। कटाई करते समय तापमान 15 से 20 डिग्री सेल्सियस और बुआई के समय तापमान 25 से 30 डिग्री सेल्सियस के बीच होना चाहिए। @ मिट्टी यह बलुई दोमट से लेकर चिकनी मिट्टी तक विभिन्न प्रकार की मिट्टी पर उग सकता है। 6 से 7.5 पीएच स्तर वाली अच्छी जल निकास वाली दोमट मिट्टी मटर की खेती के लिए सर्वोत्तम होती है। जलजमाव वाले क्षेत्रों में मटर की खेती नहीं हो पाती है। अम्लीय मिट्टी के प्रकार के लिए चूना लगाना आवश्यक है। @ खेत की तैयारी एक बार ख़रीफ़ फ़सल की कटाई हो जाने के बाद, दो बार जुताई के साथ-साथ पाटा चलाने की आवश्यकता होती है। एक बार जुताई और हैरोइंग की प्रक्रिया समाप्त हो जाने के बाद, कठोर ढेलों को नरम किया जाना चाहिए और जल जमाव की समस्याओं से बचने के लिए खेत में उचित समतलीकरण किया जाना चाहिए। बेहतर अंकुरण के लिए बीज बोने से पहले पानी की हल्की बौछारें करनी चाहिए। @ बीज *बीज दर एक एकड़ भूमि में बुआई के लिए 35-40 किलोग्राम/एकड़ बीज दर का उपयोग करें। एक हेक्टेयर के लिए 100 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है। *बीज उपचार बुआई से पहले बीज को कैप्टान या थीरम 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज या कार्बेन्डाजिम 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज से उपचारित करें। रासायनिक उपचार के बाद बेहतर गुणवत्ता और उपज के लिए बीजों को राइजोबियम लेग्यूमिनोसोरम कल्चर से उपचारित करें। कल्चर सामग्री को 10 प्रतिशत चीनी के घोल या गुड़ के घोल में इमल्सीकृत किया जाता है। इमल्सीफाइड कल्चर को बीज के साथ अच्छी तरह मिलाएं और छाया में सुखाएं। @ बुवाई *बुवाई का समय मैदानी इलाकों के लिए बुआई अक्टूबर के अंत से नवंबर के मध्य के बीच और पहाड़ी इलाकों के लिए मार्च के मध्य से मई के अंत के बीच की जानी चाहिए। * रिक्ति अगेती किस्मों के लिए 30 सेमी x 5 सेमी की दूरी का उपयोग करें और देर से आने वाली किस्मों के लिए 45-60 सेमी x 10 सेमी की दूरी का उपयोग करें। *बुवाई की गहराई बीज को मिट्टी में 2-3 सेमी की गहराई पर बोयें। *बुवाई विधि बीज बोने के लिए प्रसारण या ड्रिलिंग विधि का प्रयोग किया जाता है। @ उर्वरक बेसल के रूप में फार्म यार्ड खाद 20 टन/हेक्टेयर और 60 किग्रा N , 80 किग्रा P और 70 किग्रा K /हेक्टेयर और बुआई के 30 दिन बाद 60 किग्रा एन/हेक्टेयर डालें। उर्वरक की पूरी खुराक पंक्तियों में डालें। @ सिंचाई बेहतर अंकुरण के लिए बीज बोने से पहले सिंचाई की आवश्यकता होती है। यदि मिट्टी में पर्याप्त नमी है तो बुआई से पहले सिंचाई की कोई आवश्यकता नहीं है। एक बार बुआई समाप्त हो जाने के बाद, इसे कुछ बार और सिंचाई की आवश्यकता होती है। पहला छिड़काव फूल आने से पहले किया जाता है और दूसरा छिड़काव फली बनने के समय किया जाता है। भारी मात्रा में पानी न डालें क्योंकि इससे कुल उपज में कमी आ सकती है। @ खरपतवार नियंत्रण किस्म के आधार पर इसमें एक या दो निराई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है। पहली निराई-गुड़ाई या तो 2-3 पत्तियां निकलने की अवस्था में या बुआई के 3-4 सप्ताह बाद करें और दूसरी निराई-गुड़ाई फूल आने से पहले करें। मटर की खेती में खरपतवार नियंत्रण के लिए शाकनाशी का प्रयोग प्रभावी तरीका है। पेंडिमेथालिन 1 लीटर प्रति एकड़ और बेसालिन 1 लीटर प्रति एकड़ खरपतवार नियंत्रण में अच्छे परिणाम देते हैं। बुआई के 48 घंटे के अंदर खरपतवारनाशी का प्रयोग करें। @ फसल सुरक्षा *कीट 1. मटर लीफ माइनर लीफ माइनर का लार्वा पत्तियों में सुरंग बनाता है। संक्रमण के कारण 10-15% हानि देखी गई है। यदि इसका प्रकोप दिखे तो डाइमेथोएट 30ईसी 300 मिलीलीटर को 80-100 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ स्प्रे करें। यदि आवश्यक हो तो 15 दिन बाद छिड़काव दोबारा करें। 2. मटर थ्रिप्स और एफिड ये कोशिका रस चूसते हैं जिससे फसल पीली पड़ जाती है और इस प्रकार फसल की उपज कम हो जाती है। यदि इसका प्रकोप दिखे तो डाइमेथोएट 30ईसी 400 मिलीलीटर को 80-100 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ स्प्रे करें। यदि आवश्यक हो तो 15 दिन बाद छिड़काव दोबारा करें। 3. फली छेदक फली छेदक मटर के सबसे गंभीर कीट हैं। उनमें फूल और फलियाँ लगती हैं, यदि उन्हें असुरक्षित छोड़ दिया जाए तो 10-90% नुकसान होता है। जब प्रकोप प्रारंभिक अवस्था में हो तो कार्बेरिल 900 ग्राम प्रति 100 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ स्प्रे करें। यदि आवश्यक हो तो 15 दिन बाद छिड़काव दोबारा करें। गंभीर प्रकोप की स्थिति में मैन्युअल रूप से संचालित नैपसेक स्प्रेयर से प्रति एकड़ 100 लीटर पानी में क्लोरपाइरीफोस 1 लीटर या एसीफेट 800 ग्राम का स्प्रे करें। *रोग 1. मुरझाना जड़ें काली पड़ जाती हैं और बाद में सड़ जाती हैं। पौधों की वृद्धि रुक जाती है और उनका रंग फीका पड़ जाता है, पत्तियां पीली हो जाती हैं और डंठल और पत्तियां नीचे की ओर मुड़ जाती हैं। पूरा पौधा मुरझा जाता है और तना सिकुड़ जाता है। नियंत्रण के उपाय: बुआई से पहले बीजों को थीरम 3 ग्राम प्रति लीटर पानी या कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रति लीटर पानी से उपचारित करें और बुरी तरह प्रभावित क्षेत्रों में जल्दी बुआई से बचें। तीन वर्षीय फसल चक्र अपनाएं। संक्रमित क्षेत्र को कार्बेन्डाजिम 5 ग्राम प्रति लीटर पानी से धोएं। लैथिरस विसिया आदि जैसे खरपतवार मेजबानों को नष्ट करें। 2. जंग तनों, पत्तियों, शाखाओं और फलियों पर पीले, भूरे रंग के गोलाकार दाने देखे जा सकते हैं। रोग दिखने पर मैंकोजेब 25 ग्राम प्रति लीटर पानी या इंडोफिल 400 ग्राम प्रति 100 लीटर पानी का छिड़काव करें और 10-15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव दोहराएं। 3. पाउडर रूपी फफूंद पत्तियों, शाखाओं और फलियों के निचले हिस्से पर धब्बेदार, सफेद पाउडर जैसी वृद्धि दिखाई देती है। यह भोजन स्रोत के रूप में उपयोग करके पौधे को परजीवी बनाता है। इसे फसल विकास के किसी भी चरण में विकसित किया जा सकता है। गंभीर संक्रमण में यह पत्ते झड़ने का कारण बनता है। यदि प्रकोप दिखे तो कैराथेन 40EC 80 मिलीलीटर को 100 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ स्प्रे करें। कैराथेन के तीन छिड़काव 10 दिनों के अंतराल पर करें। @ कटाई हरी मटर की फलियों की कटाई उचित अवस्था में करनी चाहिए। बुआई के 75 दिन बाद कटाई की जा सकती है। जैसे ही मटर का रंग गहरे से हरे रंग में बदलना शुरू हो जाए, मटर की कटाई शुरू हो सकती है। 6 से 10 दिनों के अंतराल में कई बार तुड़ाई की जा सकती है, जैसे 4 से 5 बार तुड़ाई की जा सकती है। किस्म के आधार पर, अगेती किस्म की कटाई 45 से 60 दिनों के बीच, मध्य मौसम और देर के मौसम की फसल की कटाई 75 दिनों के बीच और 100 दिनों के भीतर करनी होती है। @ उपज शुरुआती सीज़न की किस्म की उपज 35 से 45 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और मध्य और देर के सीज़न की उपज 50 से 65 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के बीच होती है।
Pineapple Farming - अनानास की खेती.....!
भारतीय अनानस- 'फलों का राजा' भारत की व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण फल फसलों में से एक है। यह अपने सुखद स्वाद और स्वाद के कारण दुनिया भर में सबसे पसंदीदा फलों में से एक है। अनानस विटामिन ए और बी का एक अच्छा स्रोत है और विटामिन सी और कैल्शियम, मैग्नीशियम, पोटेशियम और लौह जैसे खनिजों में काफी समृद्ध है। यह ब्रोमेलैन का भी एक स्रोत है, जो एक पाचक एंजाइम है। ताजा खाने के अलावा, फल को विभिन्न रूपों में डिब्बाबंद और संसाधित भी किया जा सकता है। इसकी खेती प्रायद्वीपीय भारत के उच्च वर्षा और आर्द्र तटीय क्षेत्रों और उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के पहाड़ी क्षेत्रों में की जा रही है। अनानास को मध्यम वर्षा और पूरक सुरक्षात्मक सिंचाई के साथ आंतरिक मैदानों में भी व्यावसायिक रूप से उगाया जा सकता है। यह असम, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम, पश्चिम बंगाल, केरल, कर्नाटक और गोवा में बड़े पैमाने पर उगाया जाता है, जबकि गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, बिहार और उत्तर प्रदेश में छोटे पैमाने पर उगाया जाता है। अनुकूल आर्द्र जलवायु ने अनानास की खेती का पक्ष लिया है और बेहतरीन गुणवत्ता वाला 'मॉरीशस पाइनएप्पल' केरल से आता है। केरल की उपज पूरे भारत में और विदेशों में भी ताजे फल के रूप में बहुत मांग में है क्योंकि यह गुणवत्ता, मिठास में सबसे अच्छा माना जाता है और इसका स्वाद अच्छा होता है। @ जलवायु अनानास आर्द्र उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में खेती के लिए उपयुक्त है। नम पहाड़ी ढलानों में पाई जाने वाली हल्की उष्णकटिबंधीय जलवायु खेती के लिए सबसे उपयुक्त है। इसे मैदानी इलाकों में छाया के नीचे यानी अंतरफसल प्रणाली के रूप में भी उगाया जा सकता है। 500 मीटर से 700 मीटर तक की ऊंचाई खेती के लिए आदर्श है। सफल खेती के लिए इष्टतम तापमान सीमा 15.60 C और 32.20 C के बीच है। वर्षा की आवश्यकता 100-150 सेमी के बीच होती है। @ मिट्टी अनानस लगभग किसी भी प्रकार की मिट्टी में उगता है, बशर्ते यह जलमुक्त निकासी वाली हो। अनानास की खेती के लिए 5.5 से 6.0 पीएच रेंज वाली हल्की अम्लीय मिट्टी को इष्टतम माना जाता है। मिट्टी अच्छी तरह से सूखा और बनावट में हल्की होनी चाहिए। भारी मिट्टी उपयुक्त नहीं है। यह रेतीली, जलोढ़ या लेटराइट मिट्टी में उग सकता है। @ खेत की तैयारी भूमि को जुताई या खुदाई के बाद समतल करके रोपण के लिए तैयार किया जाता है। भूमि की प्रकृति के आधार पर सुविधाजनक लंबाई, लगभग 90 सेमी चौड़ाई और 15-30 सेमी गहराई की खाइयां तैयार की जाती हैं। @ प्रसार अनानास को आमतौर पर सकर, स्लिप और क्राउन द्वारा प्रचारित किया जाता है। 5-6 महीने की आयु वाली इन रोपण सामग्रियों में रोपण के 12 महीनों के बाद फूल आते हैं, सिवाय मुकुटों के जिनमें 19-20 महीनों के बाद फूल आते हैं। टिशू कल्चर के माध्यम से उत्पादित अनानास के पौधों का भी खेती के लिए उपयोग किया जाता है। @ बीज *बीज दर 350-450 ग्राम वजन के साथ 45-50 सेमी आकार के स्लिप्स पहले समान फूल और फल देते हैं; 500-750 ग्राम वजन वाले 55-60 सेमी सकर्स आदर्श होते हैं। 5-10 सेमी लंबे मुकुट रोपण से फल की गुणवत्ता बेहतर पाई जाती है। *बीजोपचार पौधों को कली सड़न से बचाने के लिए रोपण सामग्री को रोपण से पहले सेरेसन घोल (1 लीटर पानी में 4 ग्राम) या 0.2% डाइथेन एम-45 में डुबोया जाता है। रोपण से पहले सकर्स को तिरछा काटें और मैन्कोजेब 0.3% या कार्बेन्डाजिम 0.1% में डुबोएं। @ बुवाई *बुवाई का समय असम में, रोपण अगस्त-अक्टूबर के दौरान किया जाता है, जबकि केरल और कर्नाटक में; रोपण का सर्वोत्तम समय अप्रैल-जून है। भारी बारिश के दौरान आमतौर पर पौधारोपण से परहेज किया जाता है। पश्चिम बंगाल के उत्तरी भाग में रोपण का आदर्श समय अक्टूबर-नवंबर और अन्य भागों के लिए जून-जुलाई है। * रिक्ति व्यावसायिक व्यवहार्यता के लिए उच्च घनत्व वाली खेती की सिफारिश की जाती है। उपोष्णकटिबंधीय और हल्की आर्द्र स्थितियों के लिए 63,400 पौधे/हेक्टेयर (22.5 x 60 x 75 सेमी) का रोपण घनत्व आदर्श है, जबकि गर्म और आर्द्र स्थितियों के लिए 53,300 पौधे/हेक्टेयर का पौधा घनत्व है। पौधे से पौधे की दूरी 25 सेमी, पंक्ति से पंक्ति की दूरी 60 सेमी और खाई से खाई की दूरी 90 सेमी (25 x 60 x 90 सेमी) अधिक उपज प्रदान करती है। उत्तर पूर्वी राज्यों में वर्षा आधारित, उच्च उपजाऊ और पहाड़ी क्षेत्रों में, 31,000 पौधों/हेक्टेयर के कुछ कम घनत्व की सिफारिश की जाती है। *बुवाई विधि चार अलग-अलग रोपण प्रणालियाँ जैसे फ्लैट-बेड, फ़रो, कंटूर और ट्रेंच का पालन किया जाता है। रोपण की प्रणाली भूमि और वर्षा के अनुसार बदलती रहती है। ढलानों में, सीढ़ीदार या समोच्च रोपण को अपनाया जाता है जो मिट्टी के कटाव को रोकने में मदद करता है। ट्रेंच रोपण आमतौर पर केरल में किया जाता है। @ उर्वरक जोरहाट की परिस्थितियों में N , P2O5 और K2O की खुराक क्रमशः 12,4 और 12 ग्राम/पौधा/वर्ष इष्टतम है। पी आवेदन पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देखी गई है। पश्चिम बंगाल में मध्यम उपजाऊ मिट्टी के लिए, N (12-16 ग्राम), P2O5 (2-4 ग्राम) और K2O (10-12 ग्राम)/पौधे इष्टतम हैं। N और K2O प्रत्येक को 12 ग्राम/पौधे की दर से लगाने की सिफारिश की जाती है। P एप्लीकेशन की कोई जरूरत नहीं है।हालाँकि, यदि मिट्टी में P की कमी है, तो 4g P2O5/प्लांट लगाया जा सकता है। N को 6 विभाजित खुराकों में लगाया जाना चाहिए। N की पहली खुराक रोपण के दो महीने बाद और आखिरी खुराक रोपण के 12 महीने बाद दी जा सकती है। K को दो विभाजित खुराकों में लगाया जाना चाहिए। संपूर्ण P और K का आधा भाग रोपण के समय दिया जा सकता है और शेष K, रोपण के 6 महीने बाद दिया जा सकता है। वर्षा आधारित परिस्थितियों में उर्वरकों का प्रयोग नमी उपलब्ध होने पर करना चाहिए। @ सिंचाई अनानास की खेती अधिकतर वर्षा आधारित परिस्थितियों में की जाती है। अनुपूरक सिंचाई से इष्टतम वर्षा वाले क्षेत्रों में अच्छे आकार के फल पैदा करने में मदद मिलती है। सिंचाई से साल भर के उत्पादन को बनाए रखने के लिए ऑफ-सीजन रोपण स्थापित करने में भी मदद मिलती है। कम वर्षा और गर्म मौसम की स्थिति में 20-25 दिनों में एक बार सिंचाई की जाती है। @ खरपतवार प्रबंधन वर्ष में कम से कम तीन से चार बार निराई-गुड़ाई की जाती है। खरपतवारनाशकों के प्रयोग से हाथ से निराई-गुड़ाई को आंशिक रूप से समाप्त किया जा सकता है। खरपतवारों को डाययूरॉन (2 किग्रा./हेक्टेयर) की दर से या ब्रोमैसिल और डाययूरॉन (2 किग्रा./हेक्टेयर) के संयोजन से प्रभावी ढंग से नियंत्रित किया जाता है। प्रत्येक को पूर्व-उभरते स्प्रे के रूप में और पहले आवेदन के 5 महीने बाद आधी खुराक के साथ दोहराया जाता है। @ इंटरकल्चरल ऑपरेशंस अनानास की खेती में मिट्टी चढ़ाना एक आवश्यक प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य पौधों को अच्छी पकड़ बनाना है। कटाई के तुरंत बाद, केवल एक से दो सकर्स छोड़कर मिट्टी चढ़ा दी जाती है। * मल्चिंग सूखी पत्तियों या भूसे का उपयोग मल्चिंग सामग्री के रूप में किया जाता है। काली पॉलिथीन और लकड़ी के बुरादे से मल्चिंग करना प्रभावी पाया गया है। धूप की जलन और पक्षियों से होने वाले नुकसान दोनों को कम करने के लिए परिपक्व फलों को चावल के भूसे या अनानास के पत्तों से ढका जा सकता है। * विकास नियामक एनएए और संबंधित यौगिकों जैसे प्लैनोफिक्स और सेलेमोन का 10-20 पीपीएम की दर से उपयोग अनानास में फूल पैदा करता है। फल लगने के दो से तीन महीने बाद एनएए (200-300 पीपीएम) के प्रयोग से फल का आकार 15-20% बढ़ जाता है। अनानास की साल भर उपलब्धता पाने के लिए साल भर नियमित अंतराल पर इसकी योजना बनाई जानी चाहिए। कैल्शियम कार्बाइड (20 ग्राम/लीटर) या एथ्रेल (0.25 मिली/लीटर) युक्त 50 मिलीलीटर घोल/पौधे के प्रयोग से फूल आते हैं। * सकर्स, स्लिप्स और क्राउन को हटाना सकर्स पुष्पक्रम के उद्भव के साथ बढ़ने लगते हैं, जबकि स्लिप्स विकासशील फलों के साथ बढ़ते हैं। फलों का वजन सकर्स/पौधे की बढ़ती संख्या के साथ बढ़ता है, जबकि स्लिप्स की बढ़ती संख्या फल के पकने में देरी करती है। मुकुट के आकार का फल के वजन या गुणवत्ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इसलिए जितना संभव हो सके डिकरिंग में देरी की जा सकती है, जबकि स्लिप्स को रोपण के लिए आवश्यक आकार प्राप्त होते ही हटाने की सिफारिश की जाती है। मुकुट को हटाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इससे फल का आकर्षण ख़राब हो जाता है और संभालना भी मुश्किल हो जाता है। फल लगने के 45 दिन बाद ऊपरी हिस्से की आंशिक पिंचिंग जिसमें पत्तों के सबसे अंदरूनी हिस्से को हटाने के साथ-साथ बढ़ते सिरे को भी शामिल किया जाता है, बेहतर आकार और आकार के फल प्राप्त करने के लिए आदर्श है। @ फसल सुरक्षा *कीट मीली बग अनानास का सबसे महत्वपूर्ण कीट है। शिशु और वयस्क पत्तियों और कोमल टहनियों से रस चूसते हैं। कीट के प्रबंधन के लिए वानस्पतिक अवस्था में मोनोक्रोटोफॉस (नुवाक्रोन) 2.5 ग्राम/लीटर पानी और फल लगने की अवस्था में डाइमेथोएट 2.5 मिली/लीटर पानी की आवश्यकता आधारित प्रयोग की सिफारिश की जाती है। *रोग हार्ट सड़न या तना और जड़ सड़न अनानास की आम बीमारियाँ हैं। हरी पत्तियाँ पीली हरी हो जाती हैं और सिरे भूरे रंग के हो जाते हैं। प्रभावित होने पर पत्तियों का केंद्रीय घेरा हल्के पूल के साथ बाहर आ जाएगा। पत्तियों का निचला हिस्सा सड़ने का लक्षण दिखाता है और दुर्गंध छोड़ता है। रोग को अच्छी जल निकासी, स्वस्थ रोपण सामग्री के उचित चयन *फल असामान्यताएं कीटों और बीमारियों के अलावा, कुछ फल असामान्यताएं फलों को बेकार कर देती हैं। 1.एकाधिक मुकुट आम तौर पर फल में एक ही मुकुट होता है लेकिन कुछ मामलों में एक फल में 1 से अधिक या 25 मुकुट तक भी होते हैं। नतीजतन, फल का शीर्ष सपाट और चौड़ा होगा और फल डिब्बाबंदी के लिए अनुपयुक्त होगा। ऐसे फलों का स्वाद भी नीरस होता है और वे अधिक चटपटे होते हैं। यह वंशानुगत चरित्र माना जाता है, जो ज्यादातर केयेन समूह में पाया जाता है, जिसमें केव संबंधित है। 2. फल और मुकुट मोहन मुरझाए हुए फल इस हद तक विकृत हो जाते हैं, कि वे पूरी तरह से बेकार हो जाते हैं। कुछ मामलों में, प्रसार इतना चरम होता है कि फल अत्यधिक चपटे होते हैं और असंख्य मुकुटों के साथ मुड़ जाते हैं। फल और ताज का आकर्षण पौधों की उच्च शक्ति के साथ जुड़ा हुआ है। ऐसे पौधों को सामान्य पौधों की तुलना में फूल आने में अधिक समय लगता है। मिट्टी की उच्च उर्वरता और गर्म मौसम, जोरदार वानस्पतिक विकास के लिए अत्यधिक अनुकूल परिस्थितियाँ, आकर्षण का पक्ष ले सकती हैं। 3. स्लिप्स का कॉलर स्लिप्स के कॉलर को फल के आधार के करीब या यहां तक कि सीधे फल से ही बड़ी संख्या में स्लिप्स की उपस्थिति से पहचाना जाता है। अत्यधिक स्लिप्स वृद्धि के परिणामस्वरूप छोटे, पतले फल होते हैं, अक्सर आधार पर घुंडी के साथ। इस तरह की असामान्यता के लिए अपेक्षाकृत कम तापमान के साथ उच्च नाइट्रोजन उर्वरक और उच्च वर्षा को अनुकूल माना जाता है। @ कटाई अनानास के पौधों में रोपण के 12-15 महीने बाद फूल आते हैं और फल रोपण के 15-18 महीने बाद तैयार हो जाते हैं। फल आमतौर पर फूल आने के लगभग 5 महीने बाद पकता है। फल के आधार पर हल्का सा रंग परिवर्तन परिपक्वता का संकेत देता है। प्राकृतिक परिस्थितियों में, अनानास की कटाई मई-अगस्त के दौरान होती है। @ उपज औसत उपज 50-80 टन/हेक्टेयर है। अधिकांश किस्मों में आमतौर पर एक पौधे की फसल और दो पेड़ की फसलें उगाई जाती हैं और मॉरीशस की किस्मों में अधिकतम पांच फसलें ली जा सकती हैं।
Grape Farming - अंगूर की खेती......!
अंगूर दुनिया में उगाई जाने वाली सबसे महत्वपूर्ण फसल है। ज्यादातर इसे वाइन बनाने और किशमिश तैयार करने के लिए उगाया जाता है और फिर एक टेबल ताज़े फल के रूप में। जबकि भारत में, यह मुख्य रूप से टेबल उपयोग के लिए उगाया जाता है। माना जाता है कि अंगूर की खेती कैस्पियन सागर के पास हुई थी, हालांकि, भारतीय रोमन काल से अंगूर को जानते हैं। भारत में अंगूर का कुल क्षेत्रफल लगभग 40,000 हेक्टेयर है, जो मुख्य रूप से महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में वितरित किया जाता है। ताजे अंगूर कैल्शियम, फॉस्फोरस, आयरन और विटामिन बी जैसे खनिजों का काफी अच्छा स्रोत हैं। अंगूर से प्रसिद्ध शैंपेन और अन्य रेगिस्तानी वाइन तैयार की जाती हैं। @ जलवायु अंगूर उगाने के लिए आदर्श जलवायु भूमध्यसागरीय जलवायु है। अपने प्राकृतिक आवास में, बेलें गर्म और शुष्क अवधि के दौरान बढ़ती और पैदा होती हैं। दक्षिण भारतीय परिस्थितियों में - बेलें अप्रैल से सितंबर की अवधि के दौरान और फिर अक्टूबर से मार्च तक फलने की अवधि के दौरान वानस्पतिक विकास करती हैं। 100C से 400C से ऊपर का तापमान उपज और गुणवत्ता को प्रभावित करता है। उच्च आर्द्रता और मेघाच्छादित मौसम टी.एस.एस: अम्ल अनुपात को कम करने के अलावा कई कवक रोगों को आमंत्रित करता है। @ मिट्टी अंगूर को विभिन्न मिट्टी की स्थितियों के लिए व्यापक रूप से अपनाया जाता है, लेकिन अच्छी उपजाऊ मिट्टी पर उपज और गुणवत्ता उच्चतम तक पहुंचती है, पीएच 6.5 से 8.5, कार्बनिक कार्बन 1.0% से ऊपर, चूने से मुक्त और मध्यम जल धारण क्षमता होती है। प्रारंभिक लेकिन मध्यम पैदावार की उच्च टी.एस.एस. के साथ मध्यम प्रकार की मिट्टी पर कटाई की जाती है। @ प्रसार अंगूर की बेल को आमतौर पर हार्ड-वुड कटिंग द्वारा प्रचारित किया जाता है, हालांकि बीज, सॉफ्ट वुड कटिंग, लेयरिंग, ग्राफ्टिंग और बडिंग द्वारा प्रचार कुछ स्थितियों के लिए विशिष्ट है। कभी-कभी, बेल के लिए पूर्व-निर्धारित स्थिति में बिना जड़ वाले कलमों को भी सीधे खेत में लगाया जाता है। हार्डवुड कटिंग के लिए, IBA 1000 पीपीएम ट्रीटमेंट कटिंग की जल्दी, बेहतर और एकसमान रूटिंग के लिए उपयोगी है। ग्राफ्टिंग के लिए डॉग रिज, रैमसे, 1616, 1613,1103P, So4, आदि का उपयोग किया जाता है। कभी-कभी रूटस्टॉक्स को खेत में लगाया जाता है और वहां उन्हें उपयुक्त किस्मों के साथ ग्राफ्ट किया जाता है। @ बुवाई * बुवाई का समय आमतौर पर रोपण अक्टूबर से जनवरी तक किया जाता है। जून-जुलाई के दौरान शायद ही कभी रोपण किया जाता है जहां मानसून देर से होता है। मुख्य रूप से युवा विकास पर बीमारियों से बचने के लिए मानसून रोपण से बचा जाता है। * रिक्ति दो पंक्तियों के बीच की दूरी 2 से 3 मीटर हो सकती है जबकि एक पंक्ति के भीतर लताओं के बीच की दूरी आधी होगी, लताओं को 2000 से 5000 प्रति हेक्टेयर तक समायोजित करना। * बुवाई की विधि एन-एस दिशा में रोपण के लिए गड्डे खोदे जाता है। गड्डे का आकार 60 से 75 सेमी गहरा चौड़ा हो सकता है। फिर इन गड्डे को FYM , जैविक खाद, 5:10:5 जैविक मिश्रण, सिंगल सुपर फॉस्फेट, जैव उर्वरक, नीम की खली आदि से भर दिया जाता है। रोपण के लिए जगह मिट्टी के प्रकार, विविधता और प्रशिक्षण की विधि के आधार पर रखी जाती है। @ युवा बाग की देखभाल अंगूर की लताओं को पहली फसल के लिए रोपण के बाद लगभग 1.5 से 2 वर्ष लगते हैं। इस अवधि के दौरान युवा लताओं की देखभाल निम्नानुसार की जाती है। *ट्रॅनिंग लताओं को पहले बांस पर और फिर समर्थन - जाली पर ट्रेन किया जाता है। ट्रॅनिंग का एक उपयुक्त तरीका अपनाया जाता है। *छँटाई प्रारंभिक छंटाई केवल ट्रॅनिंग के लिए की जाती है अर्थात ट्रंक , भुजा, फल, बेंत आदि विकसित करने के लिए। @इंटरकल्चरिंग *गैप फिलिंग रोपण के बाद एक महीने के दौरान अधिमानतः किया जाना चाहिए। *पुनरावर्तन एक समान नई वृद्धि प्राप्त करने के उद्देश्य से रोपण के एक महीने बाद 2/3 कलियों को रखते हुए बेसल कट लिया जाता है। *सहायक बेल के सहारे के लिए बांस के सहारे तय किए जाते हैं और उन पर युवा बढ़ते बिंदुओं को प्रशिक्षित किया जाता है। *निराई-गुड़ाई खरपतवार की तीव्रता के आधार पर बेल की पंक्तियों को दो बार/तीन बार निराई-गुड़ाई की जाती है। *ट्रेनिंग प्रणाली 1. कुंज प्रणाली: वाणिज्यिक अंगूर की खेती के लिए सबसे लोकप्रिय। लगभग 80% अंगूर के बाग इस प्रणाली के अंतर्गत हैं। 2. निफिन प्रणाली: कम खर्चीला, लेकिन कम लोकप्रिय भी क्योंकि इस प्रणाली के तहत उपज कम होती है। 3. टेलीफोन प्रणाली: यह तारों और सभी के साथ एक टेलीफोन पोल जैसा दिखता है, इसलिए यह नाम है। गर्म और शुष्क स्थानों के लिए ज्यादा उपयुक्त नहीं है, क्योंकि बेरीज सूरज की जलन से ग्रस्त होती हैं। 4. हेड प्रणाली: कम खर्चीला, बहुत नज़दीकी दूरी की विशेषता, रोगों की कम घटना दिखाता है, और बेरीज का बड़ा आकार देता है। * छंटाई छंटाई तब की जाती है जब बेलें सुप्त होती हैं। जब अंगूर की खेती हल्के उष्ण कटिबंध में की जाती है, तो छंटाई दो बार की जाती है। कटाई भी दो बार की जाती है। बैंगलोर ब्लू और गुलाबी जैसी किस्में बारिश से होने वाली क्षति के लिए उचित प्रतिरोध दिखाती हैं। अतः छंटाई पूरे वर्ष में कभी भी की जा सकती है। उष्ण कटिबंध में छंटाई दो बार की जाती है, लेकिन कटाई एक बार की जाती है। छंटाई मार्च और मई के बीच की जाती है। बेलों को एक नोड में काट दिया जाता है। वे केन्स का विकास करते हैं, जिन्हें फलने के लिए प्रेरित करने के लिए अक्टूबर और नवंबर के बीच छँटाई की जाती है। *करधनी बेलों को फूलने के समय फल सेट को बढ़ाने के लिए, वजन बढ़ाने के लिए और टी.एस.एस. और परिपक्वता को बढ़ाने के लिए भी। *हार्मोन का उपयोग विभिन्न चरणों और सांद्रता में निम्नलिखित हार्मोन का उपयोग आमतौर पर उपज बढ़ाने और गुच्छों की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए किया जाता है। 1. खिलने पर - GA3..…20 से 30 पीपीएम; CCC …500 पीपीएम 2. सेटिंग पर - GA3 ….30 से 40 पीपीएम; 6BA… .. 5-10 पीपीएम 3. 4-6 मिमी आकार पर - GA3 ... 40 से 50 पीपीएम; ब्रासिनो...100 पीपीएम 4. 6-8 मिमी आकार पर - GA3 ... 30 से 50 पीपीएम; CPU… 2-3 पीपीएम @ उर्वरक हर साल अच्छी गुणवत्ता की अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए संतुलित पोषण और रासायनिक, जैविक और जैव उर्वरकों का उपयोग आवश्यक है। लगभग 700 से 900 N , 400 से 600 P और 750 से 1000 K किलो/हेक्टेयर/वर्ष सालाना लगभग 30 से 35 टन उत्पादन प्राप्त करने के लिए लगाया जाता है। अंगूर के उत्पादन में वर्मीफोस, बायोमील, 5:10:5 ऑर्मीकेम, सूक्ष्म पोषक तत्वों के मिश्रण का उपयोग उपयोगी साबित हुआ है। उर्वरकों को मुख्य रूप से वर्ष में दो बार छंटाई के समय लगाया जाता है, इसके अलावा कभी-कभार पर्ण छिड़काव भी किया जाता है। आजकल अंगूर उगाने वालों में फर्टिगेशन तकनीक लोकप्रिय हो रही है। @ सिंचाई विभिन्न क्षेत्रों में सिंचाई के तरीके अलग-अलग होते हैं। यह छंटाई के समय, मानसून पैटर्न, मिट्टी की जल धारण क्षमता, किस्म, ट्रेनिंग प्रणाली और दूरी पर निर्भर करता है। अंगूर सिंचित बारहमासी फसल है और नियमित रूप से सिंचित होती है। नई बोई गई फसल में हर 3 दिन में एक बार बाग की सिंचाई करें। ड्रिप सिंचाई के मामले में, बेल के आधार पर एक एकल उत्सर्जक तय किया जाता है। बाद में, इसे बढ़ाकर 2 और फिर 4 कर दिया जाता है। पूरी जड़ क्षेत्र को गीला करने और सक्रिय विकास को गति देने के लिए छंटाई के तुरंत बाद भारी सिंचाई की जाती है। अंगूर की फसल को गर्मी के दौरान 5-7 दिन केअंतराल में, सर्दियों के दौरान 10-12 दिनों के अंतराल में हल्की सिंचाई की आवश्यकता होती है। वर्षा के दौरान , अगली सिंचाई छोड़ दी जाती है या देरी से की जाती है। फलों की गुणवत्ता में वृद्धि के लिए फल लगने, एंथिसिस और बेरी के नरम होने के बाद सिंचाई की आवृत्ति कम हो जाती है। @ खरपतवार नियंत्रण साइप्रस, दूब घास, पार्थेनियम ओलरेस अंगूर के बागों में पाए जाने वाले कुछ सामान्य और महत्वपूर्ण खरपतवार हैं। फलों की चिंग/आवरण वाली फसलों को बार-बार निराई करके या ग्रैमैक्सोन, बेसलाइन, राउंडअप, ग्लाइसेल आदि जैसे रासायनिक खरपतवारनाशकों का उपयोग करके उन्हें नियंत्रित किया जाता है। @ फसल सुरक्षा *कीट 1. नेमाटोड प्रभावी नियंत्रण के लिए, कार्बोफ्यूरान 3 ग्राम/ फोरेट 10 ग्राम/ क्रम्ब्स 60 ग्राम/ बेल का प्रयोग करें और साइट को अच्छी तरह से सींचें। 15 दिन के लिए छोड़ दें और उसके बाद नीमकेक 200 ग्राम प्रति बेल लगाएं इससे नेमाटोड की वृद्धि नियंत्रित होगी। 2. फ़्लिआ बीटल छंटाई के बाद बेलों पर फॉसलोन 35 EC@ 2 मि.ली./लीटर पानी में छिड़काव करें जबकि संक्रमण के आधार पर दो या तीन छिड़काव की आवश्यकता हो सकती है। अंडे देने से बचने के लिए छिड़काव और छंटाई के दौरान ढीली छालों को छोड़ दें। 3. मीली बग फाइटिक चींटियों को नष्ट करने के लिए क्विनालफॉस या वैकल्पिक रूप से मिथाइल पैराथियान पाउडर को 20-25 किग्रा/हेक्टेयर की दर से मिट्टी में मिलाएं। मोनोक्रोटोफॉस-36 (WSC ) @ 2 मिली/लीटर पानी या मिथाइल डेमेटॉन 25 EC का छिड़काव करें। मीली बग कीटों को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करने के लिए आप डिक्लोरवोस -76 (WSC) @ 1 मिली/लीटर मछली के तेल राल साबुन @ 25 ग्राम/लीटर के साथ मिलाकर स्प्रे कर सकते हैं। 4. थ्रिप्स थ्रिप्स को नियंत्रित करने के लिए मिथाइल डेमेटॉन 25-EC/डाइमेथोएट -30 EC @ 2 मिली/लीटर पानी का छिड़काव बहुत अच्छा काम करता है। 5. तना गर्डलर अच्छे परिणामों के लिए पौधे के तने को कार्बेरिल 50 (WP) 2 ग्राम/लीटर की दर से धोएं। *रोग 1. एन्थ्रेक्नोज प्रबंधन के लिए, बोर्डो मिश्रण 1% या किसी भी प्रकार के कॉपर कवकनाशी 0.25% सांद्र के साथ बेलों का छिड़काव करें। आक्रमण और आवर्तक वृद्धि के आधार पर वांछित छिड़काव की संख्या तय करें। 2. ख़स्ता फफूंदी बाग़ में घुलनशील सल्फर या डस्ट सल्फर- 0.3% @ 6-10 किग्रा / हेक्टेयर का छिड़काव पाउडर फफूंदी के कवक विकास को नियंत्रित करने के लिए अच्छी तरह से काम करता है। @ कटाई सामान्य अंगूर की कटाई का मौसम फरवरी में शुरू होता है और अप्रैल के अंत तक जारी रहता है। कम से कम 180 ब्रिक्स वाले अच्छी तरह से परिपक्व गुच्छों की कटाई की जाती है @ उपज बीजरहित किस्मों - 20 से 30 टन/हेक्टेयर/वर्ष बीज वाली किस्मों - 40 से 50 टन/हेक्टेयर/वर्ष
Cardamom Farming - इलायची की खेती ......!
इलायची दुनिया के सबसे पुराने मसालों में से एक है जिसे 'मसालों की रानी' के रूप में जाना जाता है और दक्षिण भारत के पश्चिमी घाट के मूल निवासी भारत में इसे 'इलायची' के नाम से जाना जाता है। इसका उपयोग कई व्यंजन बनाने में या प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों, सौहार्दपूर्ण और आयुर्वेदिक दवाओं के स्वाद में और कन्फेक्शनरी, पेय और शराब में भी किया जाता है। इसमें एक मजबूत और अनूठी सुगंध और स्वाद है। भारत पूरी दुनिया में इलायची का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है और यह ग्वाटेमाला के बाद इसके निर्यात में भी अग्रणी है। इस मसाले को बाजार में वनीला और केसर के बाद दुनिया का तीसरा सबसे महंगा मसाला माना जाता है। छोटी इलायची और काली इलायची दो प्रकार की इलायची पाई जाती है, जहां छोटी इलायची की मध्य पूर्व बाजार और एशियाई बाजारों में उत्कृष्ट मांग है। इलायची की व्यावसायिक रूप से इसके सूखे मेवों की खेती की जाती है जिन्हें 'कैप्सूल' के रूप में जाना जाता है, जिसे वाणिज्य की इलायची भी कहा जाता है। @ जलवायु इलायची उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में अच्छी तरह से बढ़ती है जिसमें 1500 से 2500 मिमी की अच्छी तरह से वितरित वार्षिक वर्षा 15 डिग्री सेल्सियस से 35 डिग्री सेल्सियस के औसत तापमान के साथ और समुद्र तल से 600 से 1200 मीटर की ऊंचाई पर होती है। पुष्पगुच्छों की शुरुआत के लिए फरवरी से अप्रैल के महीनों के दौरान गर्मियों की बौछारें आवश्यक हैं। @ मिट्टी छोटी इलायची की फसलों को ऐसी मिट्टी की आवश्यकता होती है जो कार्बनिक पदार्थों से भरपूर हो और जिसमें जल निकासी की अच्छी सुविधा हो। छोटी इलायची की व्यावसायिक खेती के लिए दोमट मिट्टी की आवश्यकता होती है। वे लेटराइट मिट्टी और उस मिट्टी में भी अच्छी तरह से विकसित हो सकते हैं जहां पीएच रेंज लगभग 5 से 6.5 है और अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए, मिट्टी नाइट्रोजन से भरपूर और पोटेशियम और फास्फोरस के निम्न से मध्यम स्तर की होनी चाहिए। इलायची की खेती के लिए रेतीली मिट्टी से बचना चाहिए। @ खेत की तैयारी बारिश के मौसम से पहले 45×45×30 सेमी के आयाम वाले गड्ढे खोदकर भूमि तैयार की जाती है, और ऊपर की मिट्टी और अच्छी तरह से किसी भी खाद के मिश्रण से भरी जाती है। ढलान वाली भूमि के लिए, समोच्च टेरेस 2×1 मीटर की दूरी के साथ बनाए जाते हैं। @ प्रसार छोटी इलायची को ज्यादातर बीज और वानस्पतिक विधि द्वारा प्रचारित किया जाता है जहाँ वानस्पतिक विधि अधिक लोकप्रिय होती है क्योंकि यह फसल की उच्च उपज सुनिश्चित करती है। वानस्पतिक प्रवर्धन का अभ्यास चूसक के माध्यम से किया जाता है और चयनित पौध रोगों और कीटों से मुक्त होना चाहिए और सूक्ष्म प्रसार के लिए ऊतक संवर्धन तकनीकों का भी अभ्यास किया जा सकता है। @ नर्सरी प्रबंधन पौध को माध्य खेत में लगाने से पहले 10 से 18 महीने के लिए नर्सरी क्यारियों में उगाना पसंद किया जाता है। एक मीटर चौड़ाई के साथ 30 से 40 सेमी की गहराई पर क्यारियां तैयार की जाती हैं और इसे नवंबर से जनवरी के महीने में किया जाना चाहिए। अंकुरण में 30 दिन का समय लगता है और कभी-कभी इसमें दो महीने का समय भी लग जाता है और उगाए गए पौधों को तुरंत उपलब्ध पत्ती के कूड़े के साथ मल्च किया जाता है और फिर गड्ढों में लगाया जाता है। @ बुवाई * बुवाई का समय इलायची को मानसून की शुरुआत में यानी जून से जुलाई तक हल्की बूंदा बांदी के साथ लगाया जाता है। *रिक्ति पंक्ति से पंक्ति और पौधे से पौधे के लिए 2×3 मीटर की दूरी को प्राथमिकता दी जाती है। * बुवाई की विधि गड्ढे की तैयारी के बाद, युवा बढ़ते अंकुरों के साथ एक परिपक्व सकर लगाया जाता है और फिर गड्ढों को मिट्टी से भर दिया जाता है और खरपतवार के विकास से बचने के लिए आधार को गीली घास से ढक दिया जाता है और यह पानी को वाष्पीकरण से और मिट्टी के कटाव से भी बचाता है। पौध रोपण करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि गहरी रोपाई से बचा जा सके क्योंकि यह इसके विकास को रोकता है और पौधे को गड्ढे में कॉलर क्षेत्र तक लगाया जाना चाहिए। रोपाई के बाद, रोपाई को स्टेक द्वारा समर्थित किया जाना चाहिए। टिश्यू कल्चर की पौध के लिए कठोर पौधों को मुख्य खेत में लगाना चाहिए। @ उर्वरक फसल की बेहतर वृद्धि और अच्छी उपज के लिए खाद और उर्वरक की आपूर्ति की जाती है। N:P:K @ 75:75:150 किग्रा / हेक्टेयर और उपयुक्त जैविक खाद या किसी भी गोबर को 5 किग्रा प्रति क्लंप की दर से लगाया जाता है, साथ ही नीम के तेल की खली 1 किग्रा प्रति गांठ की दर से लगाई जाती है। खाद को तीन बराबर मात्रा में 45 दिनों के अंतराल पर मिट्टी में दिया जाता है और उन्हें लगाने के बाद इसे ऊपरी मिट्टी से अच्छी तरह से ढक दिया जाता है उर्वरकों को विभाजित मात्रा में बारानी परिस्थितियों में लगाया जाता है। पहला आवेदन सकर के उत्पादन और कैप्सूल के विकास में मदद करने के लिए है और दूसरा आवेदन पैनिकल्स और सकर की शुरुआत में मदद करता है और इन उर्वरकों को सिंचित वृक्षारोपण के मामले में त्रैमासिक अंतराल पर चार विभाजित खुराक में लगाया जाता है। @ सिंचाई इलायची के पौधों को मानसून की शुरुआत तक 10 से 15 दिनों की अवधि में सिंचित किया जाता है और उसके बाद बार-बार और नियमित सिंचाई से फूल आने, और फलों के अंकुरण में मदद मिल सकती है। मिट्टी की नमी को 50% से ऊपर बनाए रखने की सिफारिश की जाती है और इलायची के पौधों के लिए ओवरहेड सिंचाई विधि आदर्श रूप से अनुकूल है। ड्रिप सिंचाई पद्धति अपनाकर पानी की बचत करनी चाहिए जिससे 2 से 3 लीटर पानी की बचत होती है और पौधों को प्रतिदिन ड्रिप सिंचाई विधि से 12 से 15 लीटर पानी देना चाहिए। @ इंटरकल्चरल संचालन पौधों के स्वस्थ विकास और अच्छी पैदावार के लिए एक उचित और समय पर इंटरकल्चरल ऑपरेशन आवश्यक है। इलायची की खेती के लिए निम्नलिखित इंटरकल्चरल क्रियाओं का अभ्यास किया जाता है: *मल्चिंग यह पेड़ों को नमी के नुकसान और मिट्टी के कटाव से बचाने में मदद करता है। सूखे पत्तों का उपयोग मल्चिंग सामग्री के रूप में किया जा सकता है जो पौधे के विकास के बाद के चरणों में कार्बनिक पदार्थ के रूप में काम करता है। *निराई खेत को खरपतवार मुक्त होना चाहिए। हर 500 लीटर पानी में पैराक्वेट @625 मिली जैसे खरपतवारनाशकों का छिड़काव पौधों के आधार से लगभग 100 सेंटीमीटर दूर पंक्तियों के बीच की जगहों पर किया जाता है। *ट्रैशिंग उचित सिंचित परिस्थितियों के साथ उच्च घनत्व वाले वृक्षारोपण में बारानी परिस्थितियों में बेहतर और प्रभावी परिणामों के लिए पौधों के पुराने और सूखे अंकुर को वर्ष में एक बार हटा दिया जाता है। *छाया नियम - इलायची की फसल नमी और तनाव के प्रति बहुत संवेदनशील होती है इसलिए मिट्टी की नमी और तापमान को नियंत्रित करने के लिए छाया का प्रयोग किया जाता है। इलायची के रोपण से पहले मुख्य खेत में बलंगी, देवदार और इलांगी जैसे तेजी से बढ़ने वाले छायादार पेड़ लगाए जाने चाहिए। *अर्थलिंग अप - यह मानसून के मौसम के बाद झुरमुट के आधार पर कॉलर क्षेत्र को कवर करके और पंक्तियों के बीच स्क्रैप करके किया जाना चाहिए। यह पौधों को उगाने में सहायक होता है। @ फसल सुरक्षा * कीट 1. थ्रिप्स पत्तियों, टहनियों, पुष्पक्रमों को नुकसान, थ्रिप्स से प्रभावित कैप्सूल का मूल्य कम मिलता है। घने छाया वाले क्षेत्र में छाया को नियंत्रित करें, मार्च से सितंबर के दौरान मोनोक्रोटोफॉस 0.025% का छिड़काव करें। 2. तना , पुष्पगुच्छ, कैप्सूल छेदक लार्वा बिना खुली पत्ती की कलियों को छेदते हैं, पुष्पगुच्छ सूखने का कारण बनते हैं या युवा बीजों को खाते हैं जिससे कैप्सूल खाली हो जाते हैं। संक्रमण के प्रारंभिक चरण में मोनोक्रोटोफॉस या फेनथियोन 0.075% का छिड़काव करें। 3. एफिड्स निम्फ और वयस्क रस चूसते हैं और मोज़ेक या 'कट्टे' वायरस के वेक्टर के रूप में कार्य करते हैं। 0.05% डाइमेथोएट का छिड़काव करें। 4. परजीवी नेमाटोड नर्सरी में खराब अंकुरण और स्थापना, पौधों का अवरूद्ध और खराब विकास, मुख्य खेत में अपरिपक्व कैप्सूल का गिरना। नर्सरी में पौधों को कार्बोफ्यूरान 3 ग्राम @ 5 किग्रा/हेक्टर या मुख्य खेत में कार्बोफर्ना 5 ग्राम/झुरमुट के साथ उपचारित करें और वर्ष में दो बार 0.5 किग्रा नीम केक प्रति क्लंप डाले। *रोग 1. कट्टे रोग स्पिंडल के आकार का, पतला क्लोरोटिक फ्लीक्स सबसे नई पत्तियों पर दिखाई देता है, बाद में ये पीली हरी असंतुलित धारियों में विकसित हो जाते हैं, जिससे पत्तियां परिपक्व हो जाती हैं। संक्रमित गुच्छे अविकसित, आकार में छोटे, पतले टिलर और छोटे पुष्पगुच्छों के साथ होते हैं। स्वस्थ पौध का प्रयोग करें। संक्रमित पौधों को रोगमुक्त करें। 2. कैप्सूल सड़ांध प्रभावित कैप्सूल भूरे काले रंग के हो जाते हैं, अक्सर सड़ांध टिलर और राइजोम तक भी फैल जाती है। ट्रैश करें, संक्रमित और मृत पौधों आदि को मानसून के महीनों के दौरान हटा दें, मई के दौरान 1% बोर्डो मिश्रण का छिड़काव करें और अगस्त में दोबारा दोहराएं। 3. भीगना या प्रकंद सड़ांध संक्रमित अंकुर कॉलर क्षेत्र में गिर जाते हैं और पैच में मर जाते हैं, बड़े पौधों में पूरा झुरमुट मर जाता है। नर्सरी को 1:50 फॉर्मेल्डीहाइड से पूर्व उपचारित करें, अंकुरण के बाद मिट्टी को 0.2% कॉपर ऑक्सीक्लोराइड से भिगो दें। @ कटाई इलायची के पौधे 20 से 24 महीनों में परिपक्व हो जाते हैं और आर्थिक फसल उत्पादन तीसरे वर्ष से शुरू हो जाता है और आदर्श फसल प्रबंधन करने पर 8 से 10 साल तक जारी रहता है। कटाई की अवधि क्षेत्र और उपयोग की जाने वाली फसलों की विविधता पर निर्भर करती है। खेत में पौध रोपने के तीन साल बाद फसल आपके हाथ में आती है। फल आमतौर पर 30 से 40 दिनों के अंतराल पर पकते हैं और इसे 5 से 6 तुड़ाई की आवश्यकता होती है। अधिक परिपक्व इलायची के फल सुखाने वाले फर्श पर विभाजित हो जाते हैं जहां कच्चे फल सूखने पर सूख जाते हैं। पके हुए कैप्सूल को एक बिजली के ड्रायर या ईंधन भट्ठे में या धूप में सुखाया जाता है, इसे समान रूप से फैलाकर एक समान सुखाने को सुनिश्चित किया जाता है जिसे बाद में किसी भी कचरे को हटाने के लिए हाथों या चटाई या तार की जाली या कॉयर मैट से रगड़ा जाता है और अपने हरे रंग को बनाए रखने के लिए काले पॉलीथिन लाइन वाली बोरियों में बहाल किया जाता है। इलायची को उसके आकार, रंग और ताजगी के आधार पर उच्च बाजार मूल्य मिलता है। @ उपज इलायची का पौधा रोपण के दो से तीन वर्ष बाद बनना शुरू हो जाता है और चौथे वर्ष के बाद यह स्थापित हो जाता है। दूसरे वर्ष के दौरान यह औसतन 50 किलोग्राम प्रति एकड़ और तीसरे वर्ष में 145 किलोग्राम प्रति एकड़ और फिर चौथे वर्ष में लगभग 200 किलोग्राम प्रति एकड़ उपज देता है। एक अच्छी तरह से विकसित वृक्षारोपण से सूखी इलायची कैप्सूल की औसत उपज लगभग 450 से 500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर होती है और यह मिट्टी से मिट्टी और उपयोग की जाने वाली किस्म के प्रकार में भिन्न होती है।
Eucalyptus Farming - नीलगिरी की खेती......!
छोटे पैमाने पर और व्यावसायिक नीलगिरी की खेती शुरू करना बहुत आसान और सरल है। नीलगिरी के पेड़ों को आम तौर पर कम देखभाल और अन्य प्रबंधन की आवश्यकता होती है, और वे सभी प्रकार के वातावरण में अच्छी तरह से विकसित होते हैं। @ जलवायु नीलगिरी के पेड़ों को विभिन्न प्रकार की जलवायु परिस्थितियों में उगाया जा सकता है। लेकिन वे उष्णकटिबंधीय से समशीतोष्ण जलवायु क्षेत्रों में सबसे अच्छी तरह से पनपते हैं। नीलगिरी के पेड़ 2000 से 2200 मीटर की ऊंचाई तक उगाए जा सकते हैं। अच्छी वृद्धि के लिए उन्हें 4 सेमी से 40 सेमी वार्षिक वर्षा की आवश्यकता होती है। उनके पास उच्च स्तर का सूखा प्रतिरोध है, इसलिए सूखे क्षेत्रों और बंजर भूमि में खेती की जा सकती है। इन्हें 0°C से 47°C के तापमान वाले क्षेत्रों में उगाया जा सकता है। @ मिट्टी पर्याप्त नमी वाली गहरी, जैविक सामग्री से भरपूर और अच्छी जल निकासी वाली दोमट मिट्टी नीलगिरी की खेती के लिए सबसे अच्छी मानी जाती है। खराब भारी, रेतीली मिट्टी, अत्यधिक क्षारीय और लवणीय मिट्टी पर विकास रुक जाएगा। लेकिन कुछ नीलगिरी संकर प्रजातियों को सफलतापूर्वक क्षारीय और खारा में उगाया जाता है। पेड़ आम तौर पर 6.0 से 7.5 के पीएच रेंज वाली मिट्टी में बहुत अच्छी तरह से विकसित होते हैं। @ खेत की तैयारी भूमि खर-पतवार और पहले से उगाई गई फसल की जड़ों से मुक्त होनी चाहिए। कई जुताई करने से मिट्टी अच्छी जुताई की अवस्था में आ जाती है। पेड़ लगाने से लगभग 3 महीने पहले जमीन की जुताई करें। मानसून के रोपण के लिए भूमि की तैयारी की अन्य गतिविधियाँ जैसे कि रिडिंग, हैरोइंग और लेवलिंग को जल्दी पूरा किया जाना चाहिए। नीलगिरी मुख्य रूप से औद्योगिक उद्देश्यों के लिए लगाया जाता है। व्यावसायिक वृक्षारोपण के लिए भूमि को खरपतवार एवं पराली मुक्त बनाएं। वृक्षारोपण के लिए 30 सेमी x 30 सेमी x 30 सेमी या 45 सेमी x 45 सेमी x 45 सेमी के गड्ढे खोदें। @ बीज आवश्यक बीजों की सटीक मात्रा कई अलग-अलग कारकों पर भिन्न होती है। 1.5 x 1.5 मीटर की दूरी के साथ पौधों की जरूरियात 1690 पौधे प्रति एकड़ के करीब होती है। जबकि 2 x 2 मीटर की दूरी प्रति एकड़ लगभग 1200 पौधों को समायोजित करती है। @ बुवाई * बुवाई का समय नीलगिरी के पौधे लगाने के लिए मानसून सबसे अच्छा समय है। हालाँकि, यदि आपके पास सिंचाई की अच्छी सुविधा है तो आप कभी भी पौधे लगा सकते हैं। नीलगिरी प्रत्यारोपण के लिए सबसे अच्छा समय जून से अक्टूबर तक है। * रिक्ति उच्च घनत्व रोपण के लिए 1.5m x 1.5m (पौधे की जरूरियात लगभग 1690 पौधे/एकड़ के करीब) या 2m x 2m (लगभग 1200 पौधे/एकड़) की दूरी का चयन करें। प्रारंभिक वर्षों के लिए, अंतरफसलें ली जा सकती हैं। जब इंटरक्रॉपिंग की जाती है तो 4m x 2m (लगभग 600) या 6m x 1.5m या 8m x 1m की चौड़ी दूरी चुनें। हल्दी और अदरक या औषधीय पौधों जैसी फसलों को अंतरफसल के रूप में लिया जा सकता है। 2m x 2m सबसे व्यापक रूप से उपयोग की जाने वाली रिक्ति है। @ देखभाल नीलगिरी के पौधों को आमतौर पर कम देखभाल और अन्य प्रबंधन की आवश्यकता होती है। हालांकि, अतिरिक्त देखभाल करने से पौधों को बेहतर तरीके से विकसित होने में मदद मिलेगी। @ उर्वरक बुवाई के 3 से 5 महीने बाद मुख्य खेत में रोपाई की जाती है। मानसून की शुरुआत के साथ ही गड्ढों में पौधे रोपे जाते हैं। पौध रोपण के समय नीम आधारित पोषक तत्वों के साथ फास्फेट 50 ग्राम और वर्मी कम्पोस्ट 250 ग्राम प्रति गड्ढे की दर से डालें। नीम आधारित पोषक तत्व पौधों को दीमक से होने वाले नुकसान से बचाते हैं। पहले वर्ष में प्रति पौधे 50 ग्राम NPK उर्वरक डालें। दूसरे वर्ष में NPK (17:17:17) @50 ग्राम प्रति पौधा लगाएं। साथ ही हाथ से निराई का कार्य भी करें और खरपतवारों की वृद्धि पर नियंत्रण रखें। @ सिंचाई नीलगिरी के पौधों को आमतौर पर कम पानी की आवश्यकता होती है। हालांकि मुख्य खेत में पौध रोपते ही सिंचाई कर देनी चाहिए। नमी की मात्रा को बरकरार रखने के लिए ड्रिप सिंचाई को अपनाया जा सकता है। हालांकि, सिंचाई की संख्या मिट्टी के प्रकार, मौसम की स्थिति और मिट्टी में नमी की मात्रा पर निर्भर करती है। हालांकि, नीलगिरी एक सूखा सहिष्णु पेड़ है, बेहतर विकास और अच्छे उत्पादन के लिए सिंचाई प्रदान की जानी चाहिए। विशेष रूप से, पौधों को गर्मी या गर्म शुष्क मौसम में पानी दें। @ इंटरकल्चरल ऑपरेशन *मल्चिंग मल्चिंग मिट्टी में नमी बनाए रखने में मदद करता है। और यह बगीचे से खरपतवारों को नियंत्रित करने में भी मदद करता है। गीली घास के रूप में जैविक सामग्री का प्रयोग करें। *थिनिंग और प्रूनिंग उच्च घनत्व वाले वृक्षारोपण के मामले में पतली और छंटाई आवश्यक है। रोपण के पहले वर्ष के बाद यांत्रिक थिनिंग की जानी चाहिए। अवांछित, कमजोर और खराब पौधों को हटा दें। थिनिंग वास्तव में बड़े आकार और सीधे डंडे पाने के लिए की जाती है। पतले संचालन की सटीक संख्या प्रबंधन के उद्देश्यों पर निर्भर करती है। क्लोनों के मामले में, कटाई के चरण तक किसी पतलेपन और छंटाई की आवश्यकता नहीं होती है। दूसरे वर्ष के अंत में या तीसरे वर्ष की शुरुआत के बाद छंटाई की आवश्यकता होती है। @ फसल सुरक्षा *कीट 1. दीमक युवा पौधों में दीमक सबसे खतरनाक कीट होता है और यह फसल को काफी हद तक नुकसान पहुंचाता है। फसल को दीमक के हमले से बचाने के लिए निम्बीसाइड 2 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में मिलाकर डालें। 2. पित्त यह पत्तियों के सूखने, विकास मंदता, खराब तने के गठन का कारण बनता है। पित्त ग्रसित पौधों में नई पत्तियाँ दिखाई देने से पौधे बौने हो जाते हैं। यदि संक्रमण दिखे तो पित्त प्रभावित पौधों को हटाकर नष्ट कर दें। पित्त प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग करें। 3. तना कांकेर यदि इसका प्रकोप दिखे तो इसके नियंत्रण के लिए जड़ वाले भाग में बोर्डो मिश्रण का प्रयोग करें। @ कटाई यूकेलिप्ट्स.सिट्रियोडोरो में, कटाई में तीन साल तक की अंतिम शाखाओं और पत्तियों की छंटाई और संग्रह शामिल होता है। चौथे वर्ष में, मुख्य तने को लिग्निन वाले तने वाले हिस्से से 5 सेमी ऊपर काटा जाता है। प्रत्येक चौथे वर्ष कॉप्पिपिंग चक्र अपनाया जाता है और पत्तियों को आसवन के लिए एकत्र किया जाता है। कटाई चक्र के अंत में कटाई के बजाय, आवधिक अंतराल (6-12 महीने) पर पत्तियों की कटाई करने से उच्च सिट्रोनेल सामग्री के साथ उच्च पत्ती उपज प्राप्त होती है। कटाई की एक अन्य विधि में मुख्य तने को 3 मीटर की ऊंचाई पर परागित करना शामिल है और काटे गए तनों से निकलने वाले अंकुरों से आसवन के लिए पत्तियों को नियमित रूप से एकत्र किया जाता है। पत्तियों की कटाई का सर्वोत्तम समय मार्च-मई है क्योंकि उस समय पत्तियों में तेल की मात्रा अधिक होती है। वायनाड क्षेत्र में, दो बार कटाई की सिफारिश की जाती है यानी प्री-मानसून अवधि (मई) और मानसून के बाद (नवंबर)। यूकेलिप्ट्स.ग्लोबुलस में पेड़ों से पत्तियों को एक वर्ष में दो या तीन बार किनारे की टहनियों को काटकर एकत्र किया जाता है या गिरी हुई पत्तियों को आसवन के लिए वृक्षारोपण से एकत्र किया जाता है। जब वृक्षारोपण को लुगदी लकड़ी के प्रयोजन के लिए भी काटा जाता है, तो उपलब्ध पत्तियों को आसवन के लिए एकत्र किया जाता है। पत्तियों का आसवन पूरे वर्ष भर होता है, लेकिन आसवन के लिए सबसे अनुकूल समय अप्रैल से सितंबर तक होता है, क्योंकि इस अवधि के दौरान तेल और सिनेओल सामग्री की उपज होती है। @ उपज विभिन्न कारकों के आधार पर उपज भिन्न हो सकती है। उपज कृषि प्रबंधन प्रथाओं, पौधों के घनत्व, जलवायु आदि पर निर्भर करती है। 1m x 1m अंतर में, 4 वर्षों में 25 टन प्रति हेक्टेयर प्राप्त किया जा सकता है। जबकि 2 मी x 2 मी की दूरी में 8 वर्षों में प्रति हेक्टेयर 80 से 100 टन की औसत उपज प्राप्त की जा सकती है।
Ginger Farming - अदरक की खेती .....!
अदरक भारत की एक महत्वपूर्ण मसाला फसल है और दुनिया में अदरक के उत्पादन का 45% हिस्सा है। पूर्वोत्तर क्षेत्र के लगभग सभी राज्यों में अदरक व्यावसायिक रूप से उगाया जाता है। केरल के बाद मेघालय देश में अदरक का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है।क्षेत्र के किसानों के लिए अदरक मुख्य नकदी फसल है।फसल इतनी महत्वपूर्ण है कि कई किसान पूरी तरह से अदरक पर निर्भर हैं।इसका उपयोग बड़े पैमाने पर मसाले के रूप में और अचार, पेय पदार्थ, दवाइयों और मिष्ठान्न बनाने में किया जाता है, लेकिन पूर्वोत्तर क्षेत्र में इसका उपयोग मुख्य रूप से ताजा उपभोग के लिए किया जाता है। @ जलवायु अदरक एक उष्णकटिबंधीय फसल है और गर्म और आर्द्र जलवायु में अच्छी तरह पनपती है। इसकी खेती समुद्र तल से 1500 मीटर की ऊँचाई तक की जाती है। ठंडा और शुष्क जलवायु प्रकंद विकास के लिए सर्वोत्तम है। यह एक छायादार पौधा है और सामान्य वृद्धि के लिए पर्याप्त नमी की आवश्यकता होती है। @ मिट्टी गहरी, अच्छी तरह से सूखा, जमी हुई, भुरभुरी, दोमट, धरण में समृद्ध मिट्टी अदरक की खेती के लिए आदर्श है। साल-दर-साल उसी क्षेत्र में अदरक उगाना वांछनीय नहीं है। @ खेत की तैयारी दो बार खेत की जुताई करें फिर मिट्टी को पलटने के लिए हैरो करें। पूरी तरह से विघटित 3-5 टन FYM/ हैक्टर शामिल करें।वर्षा आधारित फसल उगाने के लिए, खेत को 1 मीटर चौड़ाई के उभरे हुए बेड में विभाजित किया जाता है और जल निकासी चैनल के लिए बेड के बीच 30 सेमी की दूरी के साथ 3 - 6 मीटर और 15 सेमी की ऊंचाई से भिन्न सुविधाजनक लंबाई होती है।पहाड़ी ढलानों पर, समोच्च के साथ बेड बनते हैं। @ बीज *बीज दर 1200 - 1500 किलोग्राम राइजोम/हेक्टेयर रोपण के लिए पर्याप्त होता है। *बीजोपचार बीज उपचार जल्दी अंकुरण को प्रेरित करता है और बीज जनित रोगजनकों और कीटों को रोकता है। बुवाई से पहले, बीज प्रकंद को गोमूत्र में आधे घंटे के लिए डुबो देना चाहिए। बीज प्रकंद को Dithane M-45 @ g / लीटर पानी के साथ भी उपचारित किया जाता है। @ बुवाई * बुवाई का समय अदरक अप्रैल से मई तक लगाया जा सकता है। लेकिन सबसे अच्छा समय अप्रैल का मध्य होता है जब मिट्टी में पर्याप्त नमी होती है। *रिक्ति अदरक के लिए 30 सेमी X 25 सेमी की दूरी को आदर्श माना जाता है। राइजोम को 4-5 सेंटीमीटर की गहराई पर फरो में लगाया जाता है और मिट्टी से ढक दिया जाता है। * बुवाई की विधि अदरक को छोटे-छोटे प्रकंदों से बिट्स के रूप में प्रचारित किया जाता है। रोपण के लिए 4-5 सेंटीमीटर लंबे और 25 - 30 ग्राम वज़न वाले बिट्स को राइजोम से अलग किया जाता है। @ उर्वरक अदरक एक संपूर्ण फसल है और बेहतर उपज और गुणवत्ता प्राप्त करने के लिए भारी खाद की आवश्यकता होती है। खेत की तैयारी के समय, मिट्टी में 3-5 टन प्रति हेक्टेयर FYM को शामिल किया जाता है। रासायनिक उर्वरकों के रूप में NPK @ 100: 90: 90 किलोग्राम / हेक्टेयर को लागू किया जाना चाहिए। रोपण के समय 1/3 नाइट्रोजन और फॉस्फोरस और पोटेशियम की पूर्ण खुराक लगाई जाती है। रोपण के 45 दिन बाद नाइट्रोजन के 1/3 मात्रा को लगाया जाता है और शेष 1/3 नाइट्रोजन को रोपण के 90-95 दिनों बाद लगाया जाता है। @ सिंचाई इसे वर्षा आधारित फसल के रूप में उगाया जाता है इसलिए वर्षा की तीव्रता और वर्षा की आवृत्ति के आधार पर सिंचाई प्रदान करें। @ इंटरकल्चरल ऑपरेशन * मल्चिंग हरी पत्तियों, पेड़ के पत्तों, सूखी घास और धान के पुआल जैसी स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्री का उपयोग खरपतवार के विकास को रोकना , सूरज से सुरक्षा, वाष्पीकरण के नुकसान को रोकने, भारी बारिश से सुरक्षा के लिए, मिट्टी के तापमान को बनाए रखने और कार्बनिक पदार्थों के फलस्वरूप रोकथाम के लिए किया जा सकता है। * निराई प्रथम 4 - 6 सप्ताह के दौरान हाथ से निराई करके खेत को साफ रखा जाता है। खरपतवारों की तीव्रता के आधार पर, 3-4 निराई-गुड़ाई करने से बेहतर उपज प्राप्त होती है। * अर्थिंग -अप पौधों के चारों ओर की मिट्टी को रेशेदार जड़ों को तोड़ने के लिए खुरपी की मदद से काम किया जाता है और जिससे नई वृद्धि का समर्थन होता है। प्रकंदों के पास की मिट्टी ढीली और स्थिर हो जाती है और प्रकंदों के समुचित विकास में मदद करती है। प्रकंदों के बेहतर विकास के लिए कम से कम दो अर्थिंग की आवश्यकता होती है। @ फसल सुरक्षा * कीट 1. प्रकंद मक्खी यदि खेत में राइजोम मक्खी का प्रकोप दिखे तो इसकी रोकथाम के लिए एसीफेट 75SP@15 ग्राम को 10 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। 15 दिन के अंतराल पर दोबारा छिड़काव करें। 2.तना छेदक यदि तना छेदक कीट का हमला दिखे तो इसकी रोकथाम के लिए डाईमेथोएट 2 मि.ली. को प्रति लीटर या क्विनालफॉस 2.5 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। 3.चूसक कीट चूषक कीटों को नियंत्रित करने के लिए नीम आधारित कीटनाशक जैसे एज़ाडिरेक्टिन 0.3EC @ 2 मिली/लीटर पानी की स्प्रे करें। *रोग 1. जड़ या प्रकंद सड़न फसल को जड़ सड़न से बचाने के लिए फसल को बोने के 30,60 और 90 दिनों के बाद मैंकोजेब 3 ग्राम प्रति लीटर या मैटालेक्सिल 1.25 ग्राम प्रति लीटर डालें। 2. बैक्टीरियल विल्ट फसल को जीवाण्विक म्लानि से बचाने के लिए पौधों को कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर खेत में रोग दिखने के तुरंत बाद डालें। 3. एन्थ्रेक्नोज यदि इसका हमला दिखे तो इसकी रोकथाम के लिए हेक्साकोनाज़ोल 10 मि.ली. या मैनकोज़ेब 75WP@25 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी + 10 मि.ली. स्टिकर की स्प्रे करें। 4. लीफ ब्लाच यदि इसका हमला दिखे तो मैनकोजेब 20 ग्राम या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 25 ग्राम को प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। 5. झुलसा और पत्ती के धब्बे यदि झुलसा रोग का हमला दिखे तो मैंकोजेब 30 ग्राम या कार्बेनडाज़िम 10 ग्राम को 10 लीटर पानी में मिलाकर 15-20 के अंतराल पर स्प्रे करें या प्रोपीकोनाजोल 1 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। @ कटाई 8 माह में फसल कटाई के लिए तैयार हो जाती है। ताजा मसाले के लिए अदरक की तुड़ाई छठवें महीने से की जाती है और यदि इसे प्रोसेसिंग के लिए इस्तेमाल किया जाता है तो इसकी तुड़ाई 8 महीने बाद की जाती है। अदरक की तुड़ाई का सही समय वह है जब पत्तियां पीली होकर पूरी तरह सूख जाती हैं। प्रकंदों को खोदकर निकालें और कटाई के बाद प्रकंदों को 2 से 3 बार पानी में अच्छी तरह धोकर साफ करें। फिर उन्हें 2-3 दिनों के लिए छाया में सुखा लें। @ उपज एक अच्छी तरह से प्रबंधित फसल 20 टन / हेक्टेयर की औसत उपज देती है।














